जननायक कृष्ण: तरुणाई की उत्कंठा से बुढ़ापे की लाचारी तक, कृष्ण के नायकत्व की अलग परिभाषा गढ़ता एक उपन्यास

By विनीत कुमार | Published: February 26, 2020 05:20 PM2020-02-26T17:20:44+5:302020-02-26T17:20:44+5:30

'जननायक कृष्ण' के लेखक वीरेंद्र सारंग हैं। उन्होंने अपने इस उपन्यास के जरिए कृष्ण से जुड़े मिथकों या कह लीजिए कि मान्यताओं को एक अलग नजर से देखने की कोशिश है।

Virendra Sarang's Jannayak krishna novel book review | जननायक कृष्ण: तरुणाई की उत्कंठा से बुढ़ापे की लाचारी तक, कृष्ण के नायकत्व की अलग परिभाषा गढ़ता एक उपन्यास

'जननायक कृष्ण' का बुक रिव्यू

Highlightsकृष्ण के जीवन से जुड़ी घटनाओं को एक अलग नजरिये से पेश करने की कोशिश'जननायक कृष्ण' के आखिरी कुछ पन्नों में बूढ़े कृष्ण की दिनचर्या का जिक्र सबसे मार्मिक और दिलचस्प भी

'कृष्ण अचेत होते जा रहे हैं, 'मैया यशोदा! आप होती यहां तो मुझे इस दशा में देखकर भों-भों कर रो देतीं। मैया गोकुल के माखन की याद आ रही है...मैया...मैं कृष्ण...तुम्हारा कान्हा हूं..मां..मां!!' कृष्ण का मुंह खुला रह गया।' वीरेंद्र सारंग के उपन्यास 'जननायक कृष्ण' की ये कुछ आखिरी पंक्तियां हैं जो कृष्ण के जीवन के आखिरी क्षणों का वर्णन करती हैं, जब उन्हें जरा नाम के व्याध का बाण लगता है।

दरअसल, कृष्ण को लेकर भारतीय जनमानस में जितनी तरह की बातें फैली हुई हैं, या कही गई हैं वो शायद सबसे आकर्षक हैं। उन्हें लेकर आम जनमानस में भगवान की मान्यता है लेकिन साथ ही साथ उनकी लीलाओं को लेकर जितने तरह के जिक्र हैं, वे उन्हें किसी आम इंसान के समान लाकर दिखाने की कोशिश करते हैं। उपन्यास 'जननायक कृष्ण' इसी 'आम इंसान' वाली छवि के एक अगले पड़ाव की तरह लगता है।

'जननायक कृष्ण' कृष्ण से जुड़े मिथकों या कह लीजिए कि मान्यताओं को एक अलग नजर से देखने की कोशिश है। इस उपन्यास में कृष्ण से जन्म की पूर्व की घटनाएं, कृष्ण का जन्म, उनका बचपन, युवावस्था, मथुरा छोड़ द्वारका का बसाया जाना, महाभारत के युद्ध में भूमिका और फिर उस युद्ध के वर्षों बाद उनकी मृत्यु आदि इन सभी घटनाक्रमों का जिक्र एक यथार्थवादी दृष्टि से करने की कोशिश लेखक ने की है। इस उपन्यास की कुछ हद तक तुलना आप अमीष त्रिपाठी के उपन्यासों से भी कर सकते हैं जिसमें हिंदू पौराणिक कथाओं के किरदारों को एक अलग ढंग से देखने की कोशिश हुई है।  

जननायक कृष्ण: उपन्यास की खासियत

इस उपन्यास सबसे अच्छी बात ये है कि कृष्ण के साथ-साथ सभी किरदारों का एक तरह से मानवीकरण किया गया है। आर्यो-अनार्यों के संघर्ष, देवताओं की अनार्यों पर काबिज होने की कोशिश आदि जैसे सिद्धांत दिलचस्प तरीके से पूरी कहानी को रचते हैं। 

कंस अनार्य संस्कृति का है और इसकी रक्षा करना चाहता है। वह अपने कमजोर पिता उग्रसेन को हटाकर राजा बना है। हालांकि साथ ही वह क्रूर और तानाशाही प्रवृति का भी हो गया है। इस बीच वासुदेव समर्थक और आर्य संस्कृति के पक्षधर कृष्ण के जन्म को लेकर मिथक रचना शुरू करते हैं और कंस अपनी मौत के डर से इसमें फंसते चले जाते हैं। 

वे और क्रूर हो जाते हैं और उनका सारा ध्यान अनार्य कृष्ण की ही हत्या पर लगा रहता है। देवता आर्य संस्कृति को बढ़ावा देने की लगातार कोशिश में है। संभव है कि कई पाठकों को ये पसंद नहीं आए लेकिन जिस तरह से कहानी को बुना गया है, वो अपने आप में दिलचस्प है।

बहरहाल, कृष्ण का डर कंस की छवि को जनता के बीच और गिरा देता है। उनका प्रशासनिक कार्यों पर ध्यान नहीं रहा और आखिरकार कृष्ण के हाथों उनका वध होता है। फिर धीरे-धीरे अपनी बातों, नीति आदि के जरिए कृष्ण एक नायक के तौर पर उभरते जाते हैं लेकिन यहां कहीं भी चमत्कार नहीं होता जैसा कि हम पौराणिक कथाओं में पढ़ते आए हैं, बल्कि सतत प्रक्रिया, कुछ नीतियों आदि से उभार होता है एक जननानक का।

जननायक कृष्ण: उपन्यास के सबसे दिलचस्प हिस्से

पौराणिक कथाओं को जिन्होंने पढ़ा या उसके बारे में जानते हैं, उन्हें कई मौकों पर इसे पढ़ना बोझिल सा लग सकता है। हालांकि कृष्ण से जुड़े गोपालक और कृषक जाति जिसे अनार्य के तौर पर पेश किया गया है, उनकी आपसी बातचीत थोड़ी रूचि पैदा जरूर करती है। ठेठ गंवई भाषा का इस्तेमाल है और इसे पढ़ना मजेदार लगता है। 

वैसे इस उपन्यास के सबसे दिलचस्प हिस्से आखिरी के कुछ पन्नों में सिमटे हैं। महाभारत का युद्ध खत्म हो चुका है और कृष्ण बूढ़े हो चले हैं। बूढ़े कृष्ण की कल्पना सबसे अलग और आकर्षक है। कई मौकों पर ये हिस्सा भावुक भी करता है। 

कंस वध के बाद पूरे जीवन में जो कृष्ण अपनी बातों, वाकपटुता, तर्क, सामर्थ्य से बड़ी से बड़ी मुश्किलें हल करते चले जाते हैं और किसी नेता या नायक के तौर पर उभरते हैं। वहीं, अपने बुढ़ापे में असहाय नजर आते हैं। उनकी बसी-बसाई शक्तिशाली द्वारका नगरी उजड़ती चली जाती है। हर ओर मार-काट और अपराध है और कृष्ण कुछ नहीं कर पाते। कृष्ण के बुढ़ापे की जो तस्वीर लेखक ने उकेरी है, उसकी एक मार्मिक बानगी देखिए...

'बलराम रूठे हैं। हो सकता है स्वस्थ न हों। कृष्ण के पास वहीं सम्पत है। वह इतनी सेवा कर रहा है कि कृष्ण के पास शब्द नहीं हैं। कल वे बिस्तर पर ही मूत्र त्याग दिए थे नींद में। उठे तो संकोच हुआ लेकिन सम्पत जान गया। उसने सब धोया-कचारा और स्वच्छ आसन बिछा दिया। कृष्ण एकटक निहारते रहे सम्पत को, उनके नयन बता रहे थे कि वे कह रहे हैं- जुग-जुग जियो बेटा सम्पत! जुग-जुग!!'

या फिर

'कृष्ण को बहुत याद आता है गोकुल, नन्दगांव, बरसाना। मित्र याद आते हैं, खेत और यमुना की स्मृतियां अभी धरी हों दैसे कहीं कोने-अंतरे। लेकिन किससे कहें।'

जननायक कृष्ण: कैसी है किताब

कोई दो राय नहीं कि 'जननायक कृष्ण' के आखिरी कुछ हिस्से बहुत दिलचस्प हैं। इसे पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता। एक नायक या मजबूत नेता जब अपने उम्र और जीवन के ढलान पर कुछ भी करने में असमर्थ होता है तो उसका मन कितना व्यथित और मजबूर महसूस करता है, इसकी व्याख्या इस उपन्यास में कृष्ण के बहाने बेहद शानदार तरीके से की गई है। 

अगर आपने पौराणिक कहानियां पढ़ी हैं, देखी हैं या सुनी हैं तो कुछ शुरुआती और मध्य के हिस्सों में उपन्यास बहुत बोझिल लगता है। पौराणिक कहानियों के चमत्कार वाले आवरण की ही तरह कई बातें यहां भी आपके तर्क की कसौटी पर खड़े उतरते नजर नहीं आते। इससे निराशा होती है।

किताब: जननायक कृष्ण

लेखक: वीरेंद्र सारंग

प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन

Web Title: Virendra Sarang's Jannayak krishna novel book review

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