विजय दर्डा का ब्लॉगः कानून की उलझनों से न्याय की धीमी होती रफ्तार

By विजय दर्डा | Published: January 20, 2020 09:11 AM2020-01-20T09:11:12+5:302020-01-20T09:11:12+5:30

अब हमारी सत्ता और न्यायिक व्यवस्था के सामने यह बड़ी चुनौती है कि आने वाले समय में वह कैसे इन सुराखों को बंद करे. एक पुरानी कहावत है कि न्याय मिलने में यदि विलंब होता है तो वह न्याय न मिलने के बराबर है.

Vijay Darda's blog: Laws slowing down justice | विजय दर्डा का ब्लॉगः कानून की उलझनों से न्याय की धीमी होती रफ्तार

विजय दर्डा का ब्लॉगः कानून की उलझनों से न्याय की धीमी होती रफ्तार

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस जघन्य कांड को लेकर पूरा देश हिल गया था, उसके गुनहगार हमारी न्यायिक व्यवस्था में मौजूद सुराखों के जरिए अभी तक फांसी के फंदे से बचे हुए हैं. सीधे शब्दों में कहें तो हमारी न्यायिक व्यवस्था के साथ वे खिलवाड़ कर रहे हैं. अब हमारी सत्ता और न्यायिक व्यवस्था के सामने यह बड़ी चुनौती है कि आने वाले समय में वह कैसे इन सुराखों को बंद करे. एक पुरानी कहावत है कि न्याय मिलने में यदि विलंब होता है तो वह न्याय न मिलने के बराबर है.

कोई सात साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में फीजियोथेरेपी की 23 वर्षीय छात्र के साथ चलती बस में 16 दिसंबर 2012 की रात गैंगरेप हुआ. उसके शरीर के नाजुक हिस्सों में दरिंदों ने लोहे का रॉड घुसा दिया. छलनी कर दिया उसके शरीर को! उसके पुरुष मित्र को बुरी तरह घायल कर दिया और फिर दोनों को सड़क किनारे फेंक कर भाग निकले. बाद में लड़की की मौत हो गई. गुस्साए देश ने उसे निर्भया के नाम से पुकारा और दोषियों को फांसी के फंदे पर लटकाने के लिए एकजुटता दिखाई. दुर्भाग्य देखिए कि दरिंदे आज भी जिंदा हैं. अभी एक तारीख आई थी कि जिंदा बचे चारों दरिंदों को 22 जनवरी को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया जाएगा लेकिन इनके वकील फिर एक कानूनी सुराख ढूंढ लाए और फांसी टल गई. नई तारीख आई है 1 फरवरी 2020 लेकिन देश को भरोसा नहीं हो रहा है कि उस दिन भी ये फांसी के फंदे पर चढ़ेंगे. कारण वही है, किसी सुराख का डर!

जिस रात यह जघन्य कांड हुआ था, उसके अगले ही दिन पुलिस ने बस ड्राइवर राम सिंह को पकड़ लिया था. जल्दी ही उसके भाई मुकेश सिंह, जिम इंस्ट्रक्टर विनय शर्मा, फल बेचने वाले पवन गुप्ता, बस के हेल्पर अक्षय कुमार सिंह और सत्रह  वर्षीय एक नाबालिग को भी गिरफ्तार कर लिया गया. राम सिंह की  11 मार्च 2013 को तिहाड़ जेल में संदिग्ध हालत में मौत हो गई. उसी साल 31 अगस्त को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने नाबालिग अभियुक्त को दोषी माना और 3 साल के लिए बाल सुधार गृह भेज दिया. अब वह आजाद घूम रहा है. देश अभी भी इस गुस्से को पचा नहीं पाया है कि वह भले ही कम उम्र रहा हो लेकिन उसकी दरिंदगी किसी खूंखार अपराधी से भी ज्यादा थी. निर्भया के नाजुक अंग में रॉड उसी ने घुसाया था! देश के हर व्यक्ति की राय यही है कि फांसी तो उसे भी होनी चाहिए!

बहरहाल, 13 सितंबर 2013 को ट्रायल कोर्ट ने चार बालिग अभियुक्तों को फांसी की सजा सुनाई. करीब छह महीने बाद 13 मार्च 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फांसी की सजा को कायम रखा. उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और तीन साल से ज्यादा वहां अटका रहा. मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट की फांसी की सजा को कायम रखा. जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन दोषियों की पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया.

इसके बाद केवल एक गुनहगार ने दया याचिका दायर की. उसे राष्ट्रपति के पास पिछले साल 6 दिसंबर को भेजा गया और नामंजूर करने की सिफारिश की गई. केवल एक गुनहगार की दया याचिका का मतलब था कि बाकी गुनहगार ऐसी ही याचिका के लिए और वक्त बर्बाद कर सकें. अंतत: निर्भया की मां के याचिका दायर करने के बाद  7 जनवरी 2020 को चारों दोषियों का डेथ वारंट जारी किया गया. 22 जनवरी की तारीख फांसी के लिए मुकर्रर हुई. इसके बाद अब क्यूरेटिव पिटिशन का पेंच आ खड़ा हुआ. वह भी खारिज हो चुका है और 1 फरवरी की नई तारीख भी आ चुकी है लेकिन सवाल है कि क्या दूसरे गुनहगारों की ओर से कोई और पेंच फंसाया जाएगा? आशंका तो यही लग रही है! पहले डेथ वारंट के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी भी की है. कोर्ट ने कहा है कि निर्भया के दोषी बड़ी चालाकी से नियमों का दुरुपयोग कर रहे हैं, सिस्टम कैंसरग्रस्त हो चुका है. लोगों का सिस्टम से भरोसा ही उठ जाएगा! निर्भया की मां की टिप्पणी भी गौर करने वाली है कि सिस्टम अंधा है और दोषियों की मदद कर रहा है.

बहरहाल, इतना हो-हल्ला मचने के बाद सरकार में बैठे लोगों तथा कानूून को बेहतर बनाने वाली एजेंसियों को मिल-बैठकर यह जरूर सोचना चाहिए और रास्ता निकालना चाहिए कि कानूूनी उलझनें कैसे समाप्त हों. न्यायिक प्रक्रिया कैसे गति पकड़े! आखिर हमारी संसद इस पर कोई कानून क्यों नहीं बनाती कि कोई अपराधी इस तरह का बेजा फायदा न उठा पाए. हमारे सांसद बेवजह के मुद्दों पर बवाल मचाने के बजाय इस गंभीर मुद्दे पर आवाज क्यों नहीं उठाते. हमारी न्यायिक व्यवस्था तो आखिर उन्हीं कानूनों के अनुसार काम करेगी जो हमारी संसद से पारित होगा. इसलिए सांसदों और संसद को तत्काल ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे कानून की उलझनें समाप्त हों.

संदर्भवश ये बताना चाहता हूं कि भारत में कोई साढ़े तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं. राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की रिपोर्ट की मानें तो बीते तीस वर्षो में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है,  स्थिति यही रही तो अगले 30 वर्षो में लंबित मुकदमों की संख्या पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी. आंकड़ा भयावह है और सबको मिलकर इस पर विचार करना चाहिए कि देश को त्वरित और सुचारु न्याय कैसे मिले!

Web Title: Vijay Darda's blog: Laws slowing down justice

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