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विजय दर्डा का ब्लॉग: नए साल में हम मिलकर उम्मीदों को साकार करें

By विजय दर्डा | Updated: December 30, 2019 07:45 IST

वर्ष 2019 जाने को है. इस कॉलम के माध्यम से 2019 के 51 सप्ताह हर तरह के मौजूं विषय पर मैंने अपनी राय आपके सामने रखी. यह कॉलम 52वां है.

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ठळक मुद्देउम्मीदें निश्चय ही पूरी हो सकती हैं क्योंकि यह क्षमता हम भारतीयों में है! कॉलम के विषयों को लेकर आपसे मिले ई-मेल और पत्र इस आत्मीयता की पुष्टि भी करते हैं.

वैसे प्रकृति ने तो वक्त को बस दो ही पैमाने पर विभाजित किया है, एक रात है और एक दिन! सूरज का वही हर दिन उगना और हर दिन अस्त हो जाना लेकिन मनुष्य ने वक्त को अपने कैनवास में बांध लिया. सेकेंड, मिनट, घंटा, चौबीस घंटा, सप्ताह, महीना और साल! फिर इससे आगे हर चौथे साल ‘लीप ईयर’ यानी एक अतिरिक्त तारीख 29 फरवरी..! फिर भी वक्त का लोचा देखिए कि दुनिया की घड़ी में ‘लीप सेकेंड’ एडजस्ट करने की जरूरत पड़ ही जाती है. तो नए साल 2020 की खासियत यह है कि 30 जून की तारीख के आसपास दुनिया की घड़ी में एक सेकेंड एडजस्ट किया जाएगा ताकि पृथ्वी के घूमने के वक्त और  हमारी घड़ी में ठीकठाक तालमेल बना रहे.

बहरहाल, वर्ष 2019 जाने को है. इस कॉलम के माध्यम से 2019 के 51 सप्ताह हर तरह के मौजूं विषय पर मैंने अपनी राय आपके सामने रखी. यह कॉलम 52वां है. निश्चय ही मेरी राय में आपके विचार भी शामिल रहे हैं क्योंकि एक पत्रकार के नाते मैं वही लिखता हूं जो आम आदमी की संगत में महसूस करता हूं. 

कॉलम के विषयों को लेकर आपसे मिले ई-मेल और पत्र इस आत्मीयता की पुष्टि भी करते हैं. आखिर हम सबकी चाहत भी तो एक जैसी ही है! हम सभी चाहते हैं कि यह देश स्वस्थ रहे, सुखी रहे और खुश रहे. इस साल की विदाई की बेला और नए साल की अगवानी की शुभ घड़ी में हमें यह कामना तो करनी ही चाहिए कि हमारी उम्मीदें पूरी हों.

उम्मीदें निश्चय ही पूरी हो सकती हैं क्योंकि यह क्षमता हम भारतीयों में है! सदियों तक आक्रमण ङोलने के बावजूद यदि हमारी हस्ती समाप्त नहीं हुई तो यह हमारी अकूत क्षमताओं का ही प्रमाण है. तो सवाल पैदा होता है कि कमी कहां है? यह सवाल मुङो भी सालता रहता है और देश-दुनिया घूमते हुए मैं तुलनात्मक अध्ययन भी करता रहता हूं. मैं यूरोप के किसी छोटे से गांव में भी देखता हूं कि खेल के मैदान हैं, खूबसूरत पार्क हैं और लोगों ने भी घर के बाहर बेहतरीन किस्म के रंग-बिरंगे पेड़-पौधे उगा रखे हैं. 

कल-कल करती हुई निर्मल नदी बह रही है. चिकनी सड़कें हैं, बेहतरीन फुटपाथ हैं और लोग बड़े सलीके से अपने वाहन पार्क कर रहे हैं, तो मेरे मन में सवाल पैदा होता है कि यह काम हम क्यों नहीं कर सकते? हमारे यहां गांव तो क्या शहर में भी ट्रैफिक की आवारगी से लोग परेशान हैं. यदि हम सभी सोच लें कि यातायात के नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगे तो क्या ट्रैफिक नहीं सुधर जाएगा? यदि हम तय कर लें कि अपने मोहल्ले को उसी तरह साफ-सुथरा रखेंगे जैसा अपने घर को रखते हैं तो क्या हमारे मोहल्ले शानदार नहीं हो जाएंगे? 

यदि हम अपनी नदियों को बचाने के लिए बड़ा जनआंदोलन छेड़ दें तो उन्हें पुनर्जीवित करने में क्या कोई कठिनाई है? हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने इस तरह का कमाल दिखाया है. उत्तर प्रदेश में जन्मीं अमला रुइया ने राजस्थान पहुंचकर जनसहयोग से 518 गांवों में 368 चेक डैम्स बनवा दिए और 6 लाख से ज्यादा लोगों की पानी की किल्लत दूर कर दी. जरा सोचिए कि पूरा देश ही यदि अमला रुइया की राह पर चल पड़े और सरकार भी साथ दे तो क्या हमारे जलस्नेत वैसे ही नहीं हो जाएंगे जैसा मैं यूरोप के देशों में देखता हूं! ..तो नए साल में प्रण कीजिए कि पानी की बर्बादी तो नहीं ही करेंगे, उसे सहेजेंगे भी.

हमने और आपने बचपन से पढ़ा है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और भारत कृषि प्रधान देश है. ये सही भी है क्योंकि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 68.84 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है. करीब 70 प्रतिशत आबादी के लिए कृषि ही आय का प्राथमिक स्नेत है. लेकिन हमारे गांवों की हालत क्या है? यूरोप के गांवों की तुलना में हम कहां बैठते हैं? कहीं नहीं. किसानों की खुशहाली तो छोड़ दीजिए, किसान आत्महत्या रोकने के लिए भी हम ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं. योजनाओं की बस घोषणा भर होती है. आत्महत्याएं नहीं रुकतीं! तो इस बार संकल्प लीजिए कि अपने प्रतिनिधि से यह जरूर पूछेंगे कि देश के किसानों के लिए वे क्या कर रहे हैं?

..और इस नए साल से यह उम्मीद कीजिए कि हमारी आबोहवा सुधरे और वक्त पर बारिश हो ताकि फसलें लहलहाएं और किसानों के घर खुशहाली आए. इस साल से दुआ कीजिए कि हर घर में कम से कम अन्न का इतना दाना तो हो ही कि भूख से किसी की मौत न हो जाए. कम से कम इतने साधन जरूर हों कि किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी की लाश कंधे पर लादकर अस्पताल से गांव तक का सफर न करना पड़े! हमारे स्वास्थ्य केंद्र सुधर जाएं, बच्चों की पहुंच स्कूल तक हो और सरकारी स्कूल भी ऐसे हो जाएं कि कॉन्वेंट को मात दे सकें. उम्मीद करिए कि देश की माली हालत सुधार की राह पर चल पड़े. हमारे उद्योग-धंधे फलें-फूलें और हर युवा को काम मिले. कोई बेरोजगार न रहे! वो सारी उम्मीदें कीजिए जो जीवन को खुशहाल बनाएं और उम्मीदों को पूरा करने के लिए कंधे से कंधा मिला लीजिए.

हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी का पुण्य स्मरण करते हुए उनकी 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. मैं अपने आपको भाग्यशाली मानता हूं कि साउथ अफ्रीका में बापू की क्रांतिभूमि डरबन में गांधी स्मारक और जहां उन्होंने वकालत की शुरुआत की उस जोहान्सबर्ग में बापू की अनोखी प्रतिमा के आगे शीश नवाने का मौका मिला. जोहान्सबर्ग के गांधी स्क्वायर पर गांधीजी का ऐसा स्टेच्यू बना है जो आजतक कहीं देखने को नहीं मिला. 

उनकी युवावस्था का बैरिस्टर के रूप में यह स्टेच्यू है. बापू की इस क्रांतिभूमि और प्रारंभिक कर्मभूमि में बार-बार यह सवाल भी मेरे भीतर उमड़ता रहा है कि बापू के सपनों का भारत हम कब बना पाएंगे? ..तो इस साल हम सभी संकल्प लें कि सत्य, अहिंसा और विनयशीलता की बुनियाद पर ऐसे भारत का निर्माण करें जो जाति और धर्म की सोच से बहुत ऊपर हो और जहां केवल इंसानियत का बोलबाला हो.

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