विजय दर्डा का ब्लॉग: क्या बच्चों का भविष्य ध्वस्त हो जाएगा..?
By विजय दर्डा | Published: January 25, 2022 04:29 PM2022-01-25T16:29:35+5:302022-01-25T16:29:35+5:30
स्कूल का अपना वातावरण होता है. इस अनुशासन का व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है. कोरोना वायरस की वजह से दो साल तक बच्चे इससे वंचित रहे हैं.
हिरोशिमा, नागासाकी पर परमाणु बम गिरने से जो जानें गईं वो तो बड़ी आफत थी ही, उसके बाद जो लोग बचे वे विभिन्न बीमारियों के शिकार हो गए. उनका जीना दूभर हो गया. लोगों को लगने लगा कि ऐसी जिंदगी किस काम की? बाद की नस्लों पर उसका खतरनाक असर आज भी दिख रहा है. जापान यात्र के दौरान लोगों के दर्द को महसूस करते हुए मेरी आंखें डबडबा आईं और दिल रो पड़ा. क्या उसी मार्ग पर कोरोना के बाद हमारे बच्चों का भविष्य जाएगा?
कोरोना महामारी के प्रारंभिक दिनों से ही मैं खासतौर पर बच्चों को लेकर बहुत चिंतित रहा हूं. शिक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों से लगातार बातचीत भी करता रहा हूं कि बच्चों के व्यक्तित्व पर इसके क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं. अब विश्व बैंक के ग्लोबल एजुकेशन डायरेक्टर जैमी सावेद्रा की बात से मेरी चिंता और बढ़ गई है.
उन्होंने कहा है कि बच्चों की शिक्षा पर महामारी के प्रभाव के बारे में जितना सोचा गया था, यह उससे ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला है. लर्निग पॉवर्टी की स्थिति पैदा हो रही है. लर्निग पॉवर्टी का मतलब है 10 साल की उम्र तक सामान्य वाक्य को भी न पढ़ पाना और न समझ पाना. इसे सामान्य भाषा में हम शैक्षणिक दरिद्रता कह सकते हैं.
मैं लगातार बच्चों की मानसिक स्थिति पर नजर रखता रहा हूं. मैंने महसूस किया है कि बच्चों को सबसे ज्यादा तकलीफ हुई है लेकिन वे उसे अभिव्यक्त कैसे करें? उम्र के हिसाब से अलग-अलग असर है. केजी या प्राथमिक स्कूल के बच्चों पर अलग प्रभाव हो सकता है तो सेकेंडरी बच्चों में कुछ अलग परिवर्तन दिखते हैं.
केजी और प्राइमरी स्कूल के बच्चों को लगने लगा है कि स्कूल कुछ होता नहीं है. वह ऑनलाइन होता है और घर पर होता है. जब मन चाहे तब पढ़ लो, टैबलेट के सामने बैठो और कुछ करो! इसे बदलने में वक्त लगेगा. स्कूल जाकर एक रूटीन में बैठना उनके लिए आसान नहीं होगा.
निश्चित रूप से परिवर्तन बहुत सारा हो रहा है और यह स्थायी है, ऐसा मैं नहीं कहूंगा लेकिन कोविड जाने के बाद भी कई वर्ष बच्चों के लिए बहुत कठिन होंगे. उदाहरण के लिए महामारी शुरू होने के पहले जिन बच्चों ने केजी में जाना शुरू किया ही था कि स्कूल बंद हो गए. अब वे दो साल से अधिक उम्र के हैं और स्कूल पहुंचेंगे तो सब कुछ बिल्कुल नया होगा. एडजस्ट करना आसान नहीं होगा.
स्कूल का अपना वातावरण होता है. इस अनुशासन का व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है. दो साल तक बच्चे इससे वंचित रहे हैं. घर पर तो सभी हैं लेकिन सब अपने आप में उलङो हुए हैं. बच्चों के प्रति घर वाले कितना ध्यान देते हैं, यह अभी स्पष्ट नहीं है. कुछ लोग ध्यान देते हैं लेकिन बहुत से माता-पिता इतने चिड़चिड़े हो गए कि बच्चों पर ही अपना गुस्सा उतारने लगे.
इन परिस्थितियों में पर्सनालिटी डिसऑर्डर पैदा होने का खतरा बना हुआ है. बड़े बच्चे अलग तरह की समस्या के शिकार हुए हैं. स्कूल बंद होने के शुरुआती दौर में बहुत से माता-पिता ने बच्चों को मोबाइल और कम्प्यूटर की तरफ धकेला ताकि वे गेम खेलते रहें और माता-पिता को परेशान न करें. इस बात का ध्यान ही नहीं रखा कि बच्चे और क्या-क्या देख रहे हैं.
आशंका है कि कईयों को पॉर्न की लत भी लगी होगी. लगातार स्क्रीन पर बैठने से बच्चों की आंखों पर भी असर होगा. उन्हें चश्मे लग जाएंगे.
निश्चित रूप से शिक्षा में तकनीक का उपयोग होना चाहिए और हो भी रहा है लेकिन आमने-सामने की पढ़ाई की परंपरागत शैली का जवाब तकनीक नहीं हो सकती है.
शिक्षक और बच्चों की आंखें मिलती हैं तो उसका अलग प्रभाव होता है. क्लास के भीतर जो दूसरे बच्चे पूछते थे, जो बातचीत होती थी वह मिसिंग है. ऑनलाइन पढ़कर यह भावनात्मक शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती है. शिक्षक और बच्चों के बीच भावनात्मक जुड़ाव जैसी स्थिति है ही नहीं. इस वजह से व्यक्तित्व विकास हो ही नहीं रहा है. कुछ साल बाद जब स्थिति सामान्य होगी तो हमें इसके दुष्परिणाम किसी न किसी रूप में दिखेंगे ही.
बंद के कारण बच्चे कॉलोनी में खेलने नहीं जा पा रहे हैं. दोस्तों से नहीं मिल पा रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इमोशनल इंटेलिजेंस में परिवर्तन आएगा. इमोशनल इंटेलिजेंस क्या है, इसका एक उदाहरण देता हूं. जब कभी कोई एक्सीडेंट होता है तो बहुत सारे लोग जमा हो जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे लोग होते हैं जो एंबुलेंस बुलाते हैं. कुछ लोग देखकर अनदेखा करते हैं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो मजाक बनाते हैं. ये जो व्यवहार है वह इमोशनल इंटेलिजेंस पर निर्भर करता है. ये चीजें घर पर बैठकर नहीं सीखी जा सकती हैं. यह दूसरों का साथ ही सिखाता है. स्पर्श की अनुभूति से बच्च बहुत कुछ सीखता है. पिछले दो वर्षाे में इमोशनल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी भारी नुकसान हुआ है.
ग्रामीण इलाकों में अलग तरह का नुकसान हुआ है. बच्चों के पास इंटरनेट का ठीकठाक कनेक्शन, स्मार्टफोन और टैबलेट की कमी रही है. इस वजह से भी वे पढ़ाई से अलग हो गए. उन पर भारी दबाव है कि वक्त बीता जा रहा है और उनकी पढ़ाई नहीं हो रही है. इस दबाव की वजह से उनके भीतर मानसिक बदलाव हो रहा है. अब समय हो गया है कि पूरे देश में स्कूल खुलने चाहिए. अच्छी बात है कि कुछ राज्यों ने स्कूल खोले हैं या खोलने की तिथि घोषित हो गई है.
जैसा कि मैंने कहा कि बच्चों पर गंभीर और दूरगामी प्रभाव हुए हैं. लंबे समय तक असर रहेगा तो यह जरूरी है कि इस गंभीर समस्या पर गंभीर शोध हो और इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाए कि बच्चों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए क्या भावनात्मक संबल देने की जरूरत है. मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और अन्य विशेषज्ञों की राय ली जानी चाहिए और उसी के अनुरूप सुधारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए.
सरकार को अतिविशेष कदम उठाने होंगे. विश्व में सबसे तरुण राष्ट्र हमारा है. ये बच्चे ही हमारी पूंजी, शक्ति और भविष्य हैं. उम्मीद करें कि हमारा भविष्य किसी तरह परेशान न हो..सुरक्षित रहे.