गणतंत्र के संरक्षक भी बनें विश्वविद्यालय, भारत 2047 में स्वतंत्रता की शताब्दी मनाने जा रहा
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 7, 2025 05:27 IST2025-07-07T05:27:43+5:302025-07-07T05:27:43+5:30
ड़कन केवल संसद में ही नहीं, बल्कि हमारे विश्वविद्यालयों में भी सुनाई देनी चाहिए. हमें अपने परिसरों को केवल शिक्षा के स्थल के रूप में देखना बंद कर देना चाहिए.

सांकेतिक फोटो
डॉ. अभिषेक सिंघवी, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट और राज्यसभा सदस्य
भारत 2047 में अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मनाने जा रहा है, हम एक नाजुक बिंदु पर खड़े हैं - कड़ी मेहनत से अर्जित स्वतंत्रता की स्मृति और अधिक न्यायपूर्ण भविष्य के जनादेश के बीच. यह कोई साधारण मील का पत्थर नहीं है, न ही कैलेंडर की केवल एक तारीख है, बल्कि अंतरात्मा की आवाज है. इस निर्णायक क्षण में, यदि लोकतंत्र को केवल मतपेटी की रस्म के रूप में नहीं बल्कि जीवन के एक तरीके के रूप में कायम रहना है, तो इसकी धड़कन केवल संसद में ही नहीं, बल्कि हमारे विश्वविद्यालयों में भी सुनाई देनी चाहिए. हमें अपने परिसरों को केवल शिक्षा के स्थल के रूप में देखना बंद कर देना चाहिए.
वे वास्तव में स्वतंत्रता की गुमनाम प्रयोगशालाएं हैं, गणतंत्र की अघोषित नर्सरी हैं. यहीं पर पूछताछ का व्याकरण और असहमति दोनों सीखी जाती है, नागरिकता की वर्णमाला का अभ्यास किया जाता है और बहुलवाद की कविताएं रची जाती हैं. कक्षा केवल शिक्षण का स्थान नहीं है; यह चरित्र की कसौटी है. यह वह स्थान है जहां संविधान के आदर्शों को कागजों से छलांग लगाकर व्यवहार में दिखना चाहिए.
यह वह स्थान है जहां नामांकन के नीरस आंकड़ों को ज्ञान की प्रेरक सिम्फनी के लिए रास्ता देना चाहिए. और सबसे बढ़कर, यह वह स्थान है जहां यह नहीं सिखाया जाना चाहिए कि क्या सोचना है, बल्कि यह सिखाया जाना चाहिए कि कैसे सोचना है. भारतीय विश्वविद्यालय हमारे राष्ट्रीय विकास में कभी मूकदर्शक नहीं रहे.
अलीगढ़ से बनारस तक, बॉम्बे से कलकत्ता तक, वे औपनिवेशिक रूढ़िवाद के खिलाफ विद्रोह के पोषक थे. रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा को आत्मा को बंधनों से मुक्त करने वाली शक्ति के रूप में देखते थे. नेहरू विश्वविद्यालय को लोकतांत्रिक राज्य की आत्मा मानते थे. डॉ. आंबेडकर ने शिक्षा को ‘उत्पीड़ितों का हथियार’ कहा, जो महान समानता लाने वाला है.
ये कोई रोमांटिक विचार नहीं थे, ये मनोमस्तिष्क के लिए घोषणापत्र थे. फिर भी आज, वे पवित्र विचार अवरुद्ध हैं. वे परिसर जो कभी सुकरातीय प्रश्नों से गूंजते थे, अब उनके डिग्री देने वाले निष्प्राण संस्थानों में तब्दील होने का जोखिम पैदा हो गया है. गलत सूचनाओं का बढ़ना, अकादमिक स्वतंत्रता का क्षरण और व्यावसायिक क्षेत्रों में बौद्धिकता के संकुचन ने कई परिसरों को इको चेम्बर्स या इससे भी बदतर, विचारों की कब्रगाह में बदल दिया है. भारत सहित कई अन्य लोकतंत्रों में, मुश्किल में डालने वाले सवाल पूछने की जुर्रत को अब देशद्रोह करार दिया जा रहा है.
अमेरिका में, ट्रम्प उन शैक्षणिक संस्थानों को कुछ हफ्तों में नष्ट करने के नए मानक स्थापित कर रहे हैं, जिन्हें बनने में सदियां लगी हैं. विश्वविद्यालयों को आदेश मानने के लिए कहा जा रहा है, सवाल पूछने के लिए नहीं. लेकिन जो लोकतंत्र अपने छात्रों से डरता है, वह अपने ही भविष्य से डरना शुरू कर चुका होता है.
सवालों को चुप कराना तटस्थता नहीं है, यह मिलीभगत है. तानाशाही चुप्पी के माध्यम से ही आती है. हमें विश्वविद्यालयों को ज्ञान के मंदिर के साथ-साथ गणतंत्र के संरक्षक के रूप में देखने की आवश्यकता है. विश्वविद्यालयों को एक ऐसा प्रकाश स्तंभ होना चाहिए जो अन्याय, अज्ञानता और असमानता के अंधेरे में अपनी नैतिक किरणों की चमक बिखेरे, न कि बाहरी दुनिया से अलग-थलग, दीवारों से घिरी इमारत बनकर रह जाए. पाठ्यक्रम को नई सांस लेने दें. न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व को प्रशासनिक भवनों और संवैधानिक पाठ के ऊपर अंकित नीति वाक्य भर बनकर नहीं रहना चाहिए.
उन्हें इंजीनियरिंग से लेकर अर्थशास्त्र तक, जीवविज्ञान से लेकर व्यवसाय तक हर विभाग में अंतर्निहित जीवंत मूल्य बनना चाहिए. संविधान को केवल विधि महाविद्यालयों में पढ़ा जाने वाला विषय नहीं होना चाहिए; इसे हर विषय में पाया जाने वाला जीवंत पाठ होना चाहिए. हमें नागरिकता के शिक्षणशास्त्र पर भी चर्चा करने की आवश्यकता है. नया शिक्षणशास्त्र छात्रों को केवल रोजगार के लिए ही तैयार न करे, बल्कि उन्हें सहभागिता के लिए भी तैयार करे. हमें न केवल किताबों के माध्यम से बल्कि मतपत्र, न्यायालय, पंचायत, और विरोध प्रदर्शनों से भी सीखना चाहिए.
नागरिक इंटर्नशिप - चाहे वह अदालतों, नगर पालिकाओं, गैर सरकारी संगठनों या सार्वजनिक नीति निर्माताओं के माध्यम से हो- हर डिग्री का अभिन्न अंग होना चाहिए. विश्वविद्यालयों को न केवल विविधता को दर्शाना चाहिए, बल्कि उन्हें व्यवहार में भी इसे अपनाना चाहिए. इसका मतलब है हाशिए के समुदायों से शिक्षकों और छात्रों की सक्रिय भर्ती.
इसका मतलब है बहुभाषी कक्षाएं, बहुल पाठ्यक्रम और समावेशी छात्र प्रशासन. यह दिखावे का मामला नहीं है, यह न्याय का मामला है. बहुलवाद को एक नारे से आगे बढ़कर एक जीवंत, अव्यवस्थित, शानदार अनुभव बनना चाहिए. आखिरकार, लोकतंत्र भी अव्यवस्थित है और यह इसके बावजूद नहीं बल्कि इसके कारण पनपता है.
इसलिए, सबसे पहले हमें अकादमिक स्वतंत्रता और संस्थागत स्वायत्तता के लिए मजबूत कानूनी सुरक्षा लागू करनी चाहिए. ये विलासिता नहीं हैं, ये बौद्धिक ईमानदारी के लिए पूर्व शर्तें हैं. दूसरा, विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) में बड़े पैमाने पर ध्यान देना जरूरी है. किसी भी छात्र को विशेषाधिकार या निकटता की कमी के कारण वंचित नहीं किया जाना चाहिए.
तीसरा, हमें विश्वविद्यालयों को छात्रों को नागरिकों के भाग्य के सह-निर्माता के रूप में सशक्त बनाना चाहिए. नेतृत्व कार्यक्रमों से न केवल सीईओ और कोडर, बल्कि मेयर, दार्शनिक और सार्वजनिक दूरदर्शी भी तैयार होने चाहिए. चौथा, भारत को वैश्विक शैक्षणिक साझेदारी को अपनाना चाहिए, खास तौर पर एशिया में.
भारत-जापान लोकतांत्रिक शिक्षा संघ दुनिया के लिए एक प्रकाश स्तंभ बन सकता है. आइए हम ऐसे परिसरों की कल्पना करें जहां टोक्यो और तिरुवनंतपुरम एआई नैतिकता, नागरिक तकनीक और संवैधानिक न्यायशास्त्र पढ़ाने के लिए एक साथ आते हैं. आखिरकार, हमारे लोकतंत्र की सेहत सिर्फ जीडीपी के आंकड़ों या वैश्विक रैंकिंग से नहीं मापी जाएगी.
यह इस बात से मापी जाएगी कि क्या भारतीय परिसर अब भी एक ऐसी जगह हैं जहां सुविधाजनक झूठ बोलने के बजाय खतरनाक सवाल पूछना सुरक्षित है. आइए हम विश्वविद्यालयों को रूढ़ियों से मुक्त करें. इसे केवल कौशल का संचारक न बनने दें, बल्कि आत्माओं का रूपांतरण करने वाला बनने दें.
इसे हमें बार-बार याद दिलाने दें कि लोकतंत्र कोई पूर्ण चीज नहीं है, बल्कि सत्य, सहिष्णुता और विश्वास की एक नाजुक, दैनिक गतिविधि है. जैसे-जैसे हम 2047 के करीब पहुंच रहे हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे गणतंत्र की रक्षा केवल अदालतों या चुनावों में ही नहीं की जाएगी, बल्कि हमारे द्वारा पोषित दिमागों, पूछे जाने वाले सवालों और हमारे द्वारा सिखाए जाने वाले मूल्यों में भी की जाएगी. विश्वविद्यालय को वह चूल्हा बनने दें जहां लोकतंत्र की आग को जीवित रखा जा सके.
(टोक्यो में विश्वविद्यालय के कुलपतियों और प्रशासकों को दिए गए व्याख्यान का अंश)