संयुक्त राष्ट्र: आला दर्जे की इस बुजुर्ग संस्था को घुन लग गया
By राजेश बादल | Published: September 30, 2020 10:47 AM2020-09-30T10:47:41+5:302020-09-30T10:47:41+5:30
संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. अमेरिका ने अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए कई मुल्कों को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है. उसके लिए कोई कायदा-कानून नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र की सूरत और सीरत ठीक नहीं है. जिस सामूहिक सद्भाव, शांति और विश्व बंधुत्व की भावना के कारण इसका गठन हुआ था, उसका विलोप होता दिखाई दे रहा है. अनेक वर्षो से हिंदुस्तान इस शिखर संस्था की दुर्बल होती काया पर चिंता का इजहार कर रहा है. पर लगता है कि उसकी मंशा का सम्मान करने में किसी बड़े देश की दिलचस्पी नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से ही भारत इस मंच पर विकासशील देशों का एक सक्रिय और ताकतवर स्वर माना जाता रहा है. पर अब यह स्वर हाशिए पर जाता दिखाई दे रहा है.
इसलिए भारत का आक्रोश और सवाल जायज है कि इस पंचायत पर काबिज सदस्य देश आखिर कब तक हिंदुस्तान की उपेक्षा करते रहेंगे. उसके तमाम महत्वपूर्ण फैसलों में भारत की भागीदारी कब सुनिश्चित होगी?
भारतीय सरोकार के पीछे ठोस कारण हैं. कई साल से जो घटनाएं समूचे विश्व पर असर डाल रही हैं, उनके बारे में इस संस्था की पेशानी पर बल नहीं आते. आतंकवाद रोकने की दिशा में यह संगठन आज तक कारगर काम नहीं कर पाया. बीते दशकों में हमने देखा है कि अमेरिका ने अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए कई मुल्कों को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है. उसके लिए कोई कायदा-कानून नहीं है. अपनी वित्तीय हालत सुधारने के लिए वह किसी भी राष्ट्र के हितों की बलि चढ़ाने में कोई संकोच नहीं करता.
अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका
विडंबना है कि उसके ही देश में संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय स्थापित है. संदर्भ के तौर पर याद रखना चाहिए कि जब पहले विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्र संघ यानी लीग ऑफनेशंस बना था तो अमेरिका ने बड़ा उपहास किया था. जब लीग ऑफ नेशंस नाकाम रहा और विसर्जित हो गया तो अमेरिका ने खुलकर प्रसन्नता प्रकट की थी.
दूसरे विश्वयुद्ध में उसने जापान पर परमाणु बम गिराया तो अपने महाशक्ति होने की लोकतांत्रिक अधिमान्यता पाने के लिए उसने संयुक्त राष्ट्र की अवधारणा को जन्म दिया और स्थायी कार्यालय के लिए न्यूयॉर्क में जमीन दी. सबसे अधिक अंशदान देने के पीछे अमेरिका की कोई प्रजातांत्रिक नीयत नहीं, बल्कि अपने हित में मनमाना दुरुपयोग करना था. तब से आज तक वह यही काम कर रहा है.
इसका एक बड़ा प्रमाण है कि सदस्य देशों के आपसी बनते-बिगड़ते रिश्तों पर संयुक्त राष्ट्र अक्सर चुप्पी साधे रखता है. वह सिर्फ उन मामलों में बेहद सक्रिय होता है, जिनमें अमेरिका का इशारा होता है. ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें कई देशों का नुकसान होता है और संयुक्त राष्ट्र कोई कार्रवाई नहीं करता. उदाहरण के तौर पर ईरान और चीन के साथ अमेरिका के संबंधों में तनाव के चलते अनेक देशों के हितों पर उल्टा असर पड़ा है - इसकी चिंता में संयुक्त राष्ट्र कभी दुबला होता नहीं दिखाई दिया.
ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर भी नाकाम रहा संयुक्त राष्ट्र
इसी तरह ग्लोबल वार्मिग, परमाणु हथियारों की होड़ और वैश्विक स्तर पर लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के बारे में इस सर्वोच्च संस्था ने परिणाम देने वाला कोई उल्लेखनीय काम किया हो - याद नहीं आता. अफगानिस्तान को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अपनी प्रयोगशाला क्यों बना रखा है, पाकिस्तान वहां आतंक के बूते राज करने वाले तालिबान को मदद क्यों करता है, छोटे-छोटे देशों को चीन अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करते हुए क्यों अपने कर्ज के जाल में फंसा रहा है, दक्षिण चीन सागर पर चीन अपनी ठेकेदारी किस आधार पर जताता है, तिब्बत और ताइवान के मसले क्यों संयुक्त राष्ट्र में नहीं उठते और लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले हिंदुस्तान को वीटो के अधिकार से क्यों वंचित रखा जा रहा है - इन सवालों को पूछने का अधिकार सदस्य देशों को क्यों नहीं होना चाहिए. कोरोना कालखंड में भी संयुक्त राष्ट्र की खामोशी का कारण समझ से परे है.
देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र का चार्टर अब बाकायदा फाइलों में बंद है. उसमें कही गई बातें आज के विश्व में बेमानी हैं. अपने पालने-पोसने वालों की दया पर मोहताज इस शिखर संस्थान पर आर्थिक दिवालियेपन की तलवार लटक रही है. अब तक आड़े समय काम आने वाले अमेरिका पर भी कुछ महीने पहले तक संयुक्त राष्ट्र के एक अरब डॉलर बकाया थे.
अनेक बड़े सदस्य देशों ने तो अपना सदस्यता शुल्क लंबे समय से नहीं चुकाया है. इस कारण संयुक्त राष्ट्र अपनी स्थापना के बाद पहली बार गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. इसके बावजूद बड़े मुल्क इस पंचायत में अपनी चौधराहट बरकरार रखना चाहते हैं. वे इस मंच का अपने राष्ट्रीय स्वार्थो की खातिर दुरुपयोग कर रहे हैं. ऐसी सूरत में सरपंच के लिए निष्पक्ष रहना बहुत कठिन हो जाएगा.