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ब्लॉग: दोहरे मापदंडों से दुनिया को चलाने की कोशिश

By राजेश बादल | Updated: August 31, 2023 10:02 IST

बता दें कि यूक्रेन और रूस की जंग से पहले भारत यूरोपीय देशों को हर रोज 1,54 000 बैरल प्रतिदिन डीजल और जेट फ्यूल निर्यात करता था। रूसी तेल पर पाबंदी के बाद भारत का निर्यात प्रतिदिन दो लाख बैरल की रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गया।

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ठळक मुद्देयूरोपीय संघ के देश सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं, लेकिन अपने स्वार्थों की खातिर उनकी बलि भी चढ़ा देते हैं।वे विकासशील देशों को अपने फरमानों को सिर झुकाकर स्वीकार करने की अपेक्षा करते हैं।वे भारत पर रूस से तेल खरीदने के लिए दबाव डाल रहे हैं, जबकि वे खुद रूस पर पाबंदी लगाए हुए हैं।

यूरोप के देशों का रवैया अजीब है. वे सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं और अपने स्वार्थों की खातिर उनकी बलि भी चढ़ा देते हैं. ये गोरे मुल्क अपने श्रेष्ठ होने का बोध बनाए रखना चाहते हैं और अपेक्षा करते हैं कि विकासशील देश उनके फरमानों को सिर झुकाकर स्वीकार करें. भारत में समूह-बीस की बैठक के लिए यूरोपीय संघ के राष्ट्रों के अनेक आला अधिकारी भी आए हुए हैं. 

कम कीमत पर रूस से तेल खरीदने पर परेशान है यूरोपीय संघ

वे भारत पर एक तरह से मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए घेराबंदी कर रहे हैं. उनकी पेशानी पर इससे बल आए हुए हैं कि भारत रूस से कम कीमत पर कच्चा तेल खरीद रहा है. उस तेल को परिष्कृत करके अनेक पेट्रोलियम उत्पाद बना रहा है. 

यह उत्पाद गोरे देश यानी यूरोपीय संघ के सदस्य खरीद रहे हैं और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं. दूसरी तरफ वे रूस-यूक्रेन जंग में अमेरिका के साथ भी खड़े हैं. अमेरिका रूस से कुछ नहीं खरीद रहा है और यूरोपीय संघ पर दबाव डाल रहा है कि वे भी ऐसा ही करें. पर यह संभव नहीं है.

रूस पर लगाई गई पाबंदियों का नहीं हो रहा उस पर असर-वाल्दिस दोम्ब्रो

नाटो के सदस्य यदि भारत से पेट्रोलियम उत्पाद नहीं खरीदेंगे तो उनकी हालत खराब हो जाएगी. यूरोपीय कमीशन के कार्यकारी उपाध्यक्ष और ट्रेड कमिश्नर वाल्दिस दोम्ब्रो अब इस बात से परेशान हैं कि रूस पर लगाई पाबंदियों का कोई असर नहीं हो रहा है. 

उन्होंने हालिया बयान में कहा है कि यूरोपीय संघ अब विचार कर रहा है कि उसके सदस्य देशों के बाजारों में रूसी कच्चे तेल से भारत में बने पेट्रोलियम उत्पाद कैसे रोके जाएं. भारतीय अधिकारियों और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल के बीच हुई चर्चा में संघ ने इस मसले को दबंगई से उठाया. 

भारत से क्या चाहती है प्रतिनिधिमंडल

प्रतिनिधिमंडल की मंशा थी कि भारत रूस से सस्ता कच्चा तेल न खरीदे और न यूरोपीय बाजारों में पेट्रो-उत्पाद भेजे. चार महीने पहले भी यूरोपीय संघ के वैदेशिक मामलों के प्रमुख जोसेफ बुरेल ने एक तीखा बयान जारी किया था. उन्होंने कहा था कि भारत को यह सब बंद करना चाहिए. 

जब उनके बयान की व्यापक आलोचना हुई तो उन्होंने एक नरम स्पष्टीकरण दिया और कहा कि उनका मकसद भारत की आलोचना करना नहीं था. लेकिन वे चाहते हैं कि भारत इसमें यूरोपीय संघ का साथ दे. गौरतलब है कि भारत का पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात सत्तर फीसदी से भी अधिक बढ़ा है. 

यूक्रेन और रूस की जंग से भारत को हुआ है फायदा

यूक्रेन और रूस की जंग से पहले भारत यूरोपीय देशों को हर रोज 1,54 000 बैरल प्रतिदिन डीजल और जेट फ्यूल निर्यात करता था. रूसी तेल पर पाबंदी के बाद भारत का निर्यात प्रतिदिन दो लाख बैरल की रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गया.

सवाल यह है कि भारत यूरोपीय संघ के ऑर्केस्ट्रा की धुनों पर क्यों नाचे? यूरोपीय संघ के देशों ने पहले ही भारत के साथ व्यापार में कोई संतुलन नहीं रखा है. वे भारत से आयात कम करते हैं और चाहते हैं कि भारत संघ के सदस्य देशों से अपना आयात बढ़ाता जाए. 

गोरे देशों की है यह दिक्कत

एकतरफा कारोबार की चाहत क्या व्यापार में सिद्धांतों की नैतिकता का पालन करती है? दूसरी बात यह है कि गोरे देश अपनी पाबंदी तो बरकरार रखना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि उनके नागरिकों को पेट्रोलियम उत्पादों की किल्लत का सामना न करना पड़े. 

यूरोपीय संघ चाहे तो अपने सदस्य राष्ट्रों की बैठक में भारत से आने वाले रूसी तेल के उत्पादों पर बंदिश लगा सकता है. मगर वह ऐसा नहीं करेगा क्योंकि वह अपने सदस्य देशों को सचमुच मुश्किल में नहीं डालना चाहता अर्थात सारा दारोमदार भारत पर है. वह या तो नुकसान उठाए या फिर अमेरिका के गुस्से का सामना करने को तैयार रहे.

यूरोपीय संघ भारत को रख रहा है निशाने पर

यूरोपीय संघ जानता है कि अमेरिका की नाराजगी मोल लेने की हालत में उसके देश नहीं हैं. ऐसे में भारत को ही निशाने पर रखा जाए. इसके अतिरिक्त रूस की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह यूरोप और एशिया में विभाजित है इसलिए दोनों महाद्वीपों से जुड़े देश भी रूस के साथ अपने रिश्ते बेहतर रखना चाहते हैं. रूस, भारत, चीन का त्रिकोण बनना अमेरिका और उसके दोस्तों को रास नहीं आएगा.

दरअसल, यूरोप के गोरे देश और अमेरिका हमेशा से एशियाई राष्ट्रों को लेकर पूर्वाग्रही रहे हैं. उसके कारण ऐतिहासिक हैं. ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से बाहर है, पर गोरे राष्ट्रों की मानसिकता ब्रिटेन से कोई अलग नहीं है. हालांकि इस आलेख का यह विषय नहीं है पर प्रसंग के तौर पर गुलाम हिंदुस्तान का उदाहरण देना चाहूंगा. 

यूरोप के हर देश का पहला पसंद हिंदुस्तानी कपड़ा था

उस दौर में भारत के सूती कपड़ों से ब्रिटेन समेत सारे यूरोप की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई थी. हिंदुस्तानी कपड़ा यूरोप के हर देश की पहली पसंद था. जाने-माने लेखक डेनियल डिफो ने लिखा, ‘भारतीय कपड़े हमारे घरों, ड्राइंगरूम यहां तक कि बेडरूम में छा गए हैं. 

हमारे पर्दे, गद्दे और बिस्तर भी हिंदुस्तानी कपड़े के हैं.’ भारत के कपड़ों का इंग्लैंड के गोरे कारोबारी जमकर विरोध करने लगे. ब्रिटेन की सरकार को झुकना पड़ा. भारतीय कपड़े का आयात रोकने के लिए कानून बनाना पड़ा. सन्‌ 1740 में भारत से इंग्लैंड में कुल आयात 17,95,000 पौंड था. 

सन 1760 में हिंदुस्तानी रूमाल के लिए महिला को देना पड़ा जुर्माना

नौबत यहां तक आई कि सन्‌ 1760 में एक गोरी महिला के पास हिंदुस्तान का बना रूमाल बरामद हुआ तो उसे 200 पौंड जुर्माना भरना पड़ा. हॉलैंड को छोड़कर बाकी यूरोपीय देशों ने भारत से कपड़ा मंगाना बंद कर दिया और भारी-भरकम टैक्स लगा दिए. इसके बाद भी भारतीय कपड़े दुनिया के बाजार में धूम मचाते रहे. 

भारतीय माल के बारे में क्या लिखते है गोरे इतिहासकार

गोरे इतिहासकार एच.एस. विल्सन ने लिखा था कि अगर भारतीय माल को ब्रिटेन में बेचने पर रोक न लगी होती तो मैनचेस्टर के कारखाने अपनी शुरुआत में ही बंद हो चुके होते. उनका जन्म भारतीय कारखानों की बलि देकर ही हुआ था. भारत आजाद होता तो वह भी बदले की कार्रवाई करता. 

ब्रिटिश माल पर प्रतिबंध लगाता या आयात शुल्क बहुत बढ़ाता और अपने उत्पादक उद्योगों को नष्ट होने से बचा लेता. यह उदाहरण यूरोप की गोरी मानसिकता को उजागर करता है. यूरोपीय संघ के देश भारत को लेकर अभी भी रौबीला भाव रखते हैं और मौजूदा दौर में यह न्यायसंगत नहीं है. 

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