अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः शिक्षा प्रणाली की देन नहीं है यह नोबल
By अभय कुमार दुबे | Published: October 22, 2019 11:42 AM2019-10-22T11:42:36+5:302019-10-22T11:42:36+5:30
भारत में शिक्षा के गिरते हुए स्तर की यह बानगी मुङो अपने संस्थान विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में दिखाई देती है. देश के इस सबसे प्रतिष्ठित शोध संस्थान के ज्यादातर विद्वान ब्रिटेन या अमेरिकी विश्वविद्यालयों के पढ़े हुए हैं.
क्या नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले अभिजीत बनर्जी अंतिम भारतीय होंगे जिनकी एमए तक उच्च शिक्षा भारत में (प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में हुई होगी? इस सवाल को उठाने के पीछे का कारण स्पष्ट है. अभिजीत बनर्जी के पिता दीपक बनर्जी जिस प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाते थे और जिसमें उनका बेटा पढ़ा, उसका स्तर अब वैसा नहीं रह गया है.
यही हालत जेएनयू की है. आज के प्रेसीडेंसी और आज के जेएनयू से नए अभिजीत बनर्जी का निर्माण करने की उम्मीद हमें नहीं लगानी चाहिए. अतीत के बेहतरीन भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर भी गिर चुका है. आज का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपने गौरवपूर्ण अतीत को बहुत पीछे छोड़ चुका है. क्या अभिजीत बनर्जी के स्तर के लोग अपने बेटों को भारत में पढ़ाना पसंद करेंगे? इसका पीड़ादायक उत्तर केवल ‘नहीं’ में ही दिया जा सकता है.
भारत में शिक्षा के गिरते हुए स्तर की यह बानगी मुङो अपने संस्थान विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में दिखाई देती है. देश के इस सबसे प्रतिष्ठित शोध संस्थान के ज्यादातर विद्वान ब्रिटेन या अमेरिकी विश्वविद्यालयों के पढ़े हुए हैं. जब यहां नई नियुक्तियां होती भी हैं, तो जोर उन्हीं लोगों पर होता है जिनकी पीएचडी किसी विदेशी विश्वविद्यालय से होती है.
अंग्रेजों ने भारत में जो शिक्षा-प्रणाली तैयार की थी, उसमें शुरू से ही मौलिकता की गुंजाइश कम से कम थी. उसके केंद्र में भारतवासियों को ज्यादा से ज्यादा ‘उपयोगी ज्ञान’ देने का इरादा था, ताकि वे ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य की मशीनरी में एक आज्ञापालक की तरह फिट हो सकें. इन सीमाओं के बावजूद भारत में मौलिक काम करने वाले कुछ बुद्धिजीवी पैदा हुए हैं.
लेकिन, उंगलियों पर गिनने लायक इन लोगों की उपलब्धियां उनके व्यक्तिगत प्रयासों और पारिवारिक पृष्ठभूमि का परिणाम रही हैं. उनका श्रेय भारत की शिक्षा व्यवस्था को नहीं दिया जा सकता. ध्यान रहे कि अभिजीत बनर्जी के माता और पिता दोनों ही अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे, और अमर्त्य सेन की मां महान विद्वान क्षितिमोहन सेन की बेटी थीं, और उनके पिता रसायनशास्त्र के आचार्य थे. इसीलिए अपनी प्रतिभा से सारी दुनिया को चकाचौंध करने वाले लोगों में भारतवासियों की संख्या इतनी कम है. अगर हमारी प्रणाली और व्यवस्था में दम होता तो आज विश्व में ज्ञान के दायरों पर भारतवासी हावी होते, न कि उनकी उपस्थिति ज्ञान के हाशियों पर होती.
यह समस्या बुनियादी रूप से विचार करने योग्य है. हमारे जमाने के एक अनूठे विद्वान और इतिहासकार रणजीत गुहा ने इसका एक कारण खोजा है. गुहा ने अपने सशक्त विश्लेषण से दिखाया है कि जिसे हम आधुनिक भारतीय शिक्षा कहते हैं, उसे दरअसल ‘नौकर को दी जाने वाली तालीम’ के तौर पर डिजाइन किया गया था.
अंग्रेज चाहते थे कि इस शिक्षा को ग्रहण करने वाला भारतीय उनके नौकर के रूप में अपने अतीत को हमेशा और अविचल रूप से मालिक की निगाह के अलावा किसी और आईने में न देख सके. ऐसा करके अंग्रेजों ने सुनिश्चित किया कि उनकी भारतीय प्रजा अपनी स्वतंत्र अस्मिता का दावा करने के लिए अपने अतीत का इस्तेमाल न कर पाए. ब्रिटिश साम्राज्यिक हितों और ब्रिटिश नजरिये की सेवा करने के लिए पूरी बारीकी से तैयार की गई इस शिक्षा में दक्षिण एशियाई इतिहास के बारे में किसी मौलिक भारतीय समझ और रवैये की गुंजाइश नहीं थी.
इसी जगह गुहा ने औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली और उसके बाद भारतीय शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की भूमिका पर उंगली रखी है. उनकी मान्यता है कि एक भाषा के तौर पर अंग्रेजी उपनिवेशवादियों के लिए महज शिक्षा का एक माध्यम भर नहीं थी. उपनिवेशवाद के शुरुआती दौर से ही इस भाषा को कुछ इस तरह गढ़ा गया था कि वह भारतवासियों के लिए उनकी ‘अधीनस्थता को वांछनीय ठहराने के उपकरण’ का काम कर सके.
गुहा कहते हैं, ‘इस प्रकार यह शिक्षा एक ऐसी विचारधारात्मक मुहिम के तौर पर सामने आती है जिसमें विभिन्न विमर्शी रूपों के तहत अंग्रेजी को एक कार्यभार संपन्न करना था— उपनिवेशितों को यह समझाने का कार्यभार कि उपनिवेशवाद का विचार उन्हें अपने लिए एक ऐतिहासिक अनिवार्यता और लाभदायक घटना के तौर पर ग्रहण करना चाहिए.’
गुहा के शब्दों में, ‘उपनिवेशवाद की सभी एजेंसियों ने, चाहे वे निजी हों या सरकारी, मिशनरी हों या सेकुलर, शिक्षा को देशज (भारतीय) मानस पर की जाने वाली आध्यात्मिक शल्यक्रिया (अ स्पिरिचुअल ऑपरेशन ऑन द नेटिव माइंड) की छवि के तौर पर ही प्रक्षेपित किया.’ गुहा निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘उपनिवेशवादी शिक्षा के कारण शिक्षितों के लिए अंग्रेजी अपने आप में ही एक विचार के तौर पर संघटित हो गई. उसने शिक्षितों को उनकी परंपरा से काट दिया.’ परिणामस्वरूप अपने शासकों के चिंतन से अलग हट कर कुछ भी सोचना शिक्षितों के लिए नामुमकिन हो गया.
हम अभी तक इस मुगालते में हैं कि भारत की शिक्षा व्यवस्था को सुधारा जा सकता है और अगर उसमें कुछ संस्थागत परिवर्तन कर दिए जाएं तो उसके गर्भ से अभिजीत बनजिर्यों और अमर्त्य सेनों का जन्म होना शुरू हो जाएगा. मोदी सरकार नई शिक्षा-प्रणाली लागू करने जा रही है. उससे कुछ उम्मीदें बनती हैं, पर उसकी समस्याएं भी बहुत हैं.
डर यह लगता है कि इस नई प्रणाली में जो भी संभावनाएं हैं, वे कहीं नए हुक्मरानों के विचारधारात्मक आग्रहों के कारण विकृत न हो जाएं. ऊपर से हमारी नौकरशाही (जो इस प्रणाली को जमीन पर उतारेगी) का योजनाएं लागू करने का इतिहास भी
संदिग्ध है.