मतदाता के मन की थाह लेने का सवाल
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 19, 2018 04:50 AM2018-12-19T04:50:03+5:302018-12-19T04:50:03+5:30
पांच राज्यों की विधानसभाएं चुनी जा चुकी हैं और अब चुनावी नतीजों की रोशनी में सभी राजनीतिक दल यह अनुमान लगाने में लगे हुए हैं कि मतदाताओं का मिजाज उन्हें क्या संदेश दे रहा है
(लेखक- अभय कुमार दुबे)
पांच राज्यों की विधानसभाएं चुनी जा चुकी हैं और अब चुनावी नतीजों की रोशनी में सभी राजनीतिक दल यह अनुमान लगाने में लगे हुए हैं कि मतदाताओं का मिजाज उन्हें क्या संदेश दे रहा है. इन पांच राज्यों के मतदाताओं का अगर सम्मिलित किरदार देखा जाए तो यह अखिल भारतीय किस्म का है. तेलंगाना दक्षिण का नवनिर्मित राज्य है जिसके मतदाताओं के चिंतन पर क्षेत्रीय उपराष्ट्रवाद की गहरी छाप है.
मिजोरम उत्तर-पूर्व का ऐसा राज्य है जिसकी आबादी ईसाई बहुल है और अस्सी के दशक तक यहां मिजो पृथकतावाद ने भारतीय राज्य के खिलाफ हथियारबंद बगावत छेड़ी हुई थी. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान हिंदी पट्टी के राज्य तो हैं लेकिन ये उत्तर प्रदेश जैसे नहीं हैं. राजस्थान की राजनीति में रजवाड़ों के साथ-साथ जाटों, गूजरों और आदिवासी-आरक्षण से लाभान्वित हुए मीणा समुदाय का खासा दखल है. छत्तीसगढ़ आदिवासी प्रमुखता के साथ-साथ माओवादी प्रभाव के सघन क्षेत्रों के लिए जाना जाता है. मध्य प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़े वर्ग प्रमुख हैं, साथ ही यह प्रदेश हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति की शुरुआती प्रयोगशाला है. यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रकारांतर से भाजपा की सांगठनिक जड़ें बहुत गहरी हैं.
सवाल यह है कि इन किस्म-किस्म के मतदाताओं में समान बात क्या है? इस सवाल का कमोबेश जवाब दो उदाहरणों के जरिए हासिल करने की कोशिश की जा सकती है. खास बात यह है कि ये दोनों मिसालें टीवी चैनलों की पत्रकारिता से निकली हैं. एक टीवी चैनल ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में कुछ जगहों पर प्रयोग-स्वरूप कुछ वोटरों को आपस में बातचीत करते हुए उस समय ‘शूट’ किया जब उन्हें पता नहीं था कि वे टीवी कैमरे का सामना कर रहे हैं. दरअसल, होता यह है कि जैसे ही लोगों को पता चलता है कि उन्हें रिकॉर्ड किया जा रहा है, वैसे ही वे चतुराई से सोच कर बातें करने लगते हैं और उस सूरत में उनके दिल का हाल सामने नहीं आ पाता. इस लिहाज से इस रिकॉर्डिग में मतदाताओं के मानस के भीतर झांकने की संभावना थी.
जब यह रिकॉर्डिग बाद में विश्लेषण के लिए देखी गई तो यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि इस देश के साधारण मतदाताओं की तकरीबन सभी चिंताएं रोटी-रोजी, बिजली-पानी-सड़क जैसी नागरिक सुविधाओं और सुशासन से संबंधित आग्रहों के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं. आपस में बात करते हुए इन मतदाताओं ने राम मंदिर, गौ-रक्षा, आरक्षण, मुसलमान विरोध, पाकिस्तान से नफरत और जातिगत अंतर्विरोधों की शायद ही कभी चर्चा की हो.
कहा जा सकता है कि ये मतदाता सांप्रदायिक और जातिगत राजनीति में स्वाभाविक रूप से रमे हुए नहीं थे, और अगर इनमें से किसी ने इन पहलुओं को ध्यान में रख कर वोट डाला भी होगा तो वह राजनीतिक दलों और नेताओं के प्रचार से प्रभावित होकर ही इस तरफ झुका होगा. इससे एक सुरक्षित नतीजा निकाला जा सकता है कि सांप्रदायिक और जातिवादी मुद्दे मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद नहीं हैं.
दूसरा उदाहरण और भी दिलचस्प है. मेरे एक मित्र पत्रकार ने चुनावी-मुहिम के दौरान मध्य प्रदेश और राजस्थान में हजारों किलोमीटर की यात्र की और जगह-जगह जा कर मतदाताओं की प्राथमिकताओं का पता लगाने की कोशिश की. मध्य प्रदेश में एक जगह उसने जब एक किसान से कैमरे पर पूछा कि वह किसे और क्यों वोट देगा तो उसने साफ तौर पर कहा कि वह भाजपा और शिवराज सिंह चौहान को इस बार वोट देने नहीं जा रहा है. कारण उसने कई बताए, पर उसका प्रमुख कारण यह था कि भाजपा सरकार की भावांतर योजना के तहत जो धन उसके खाते में आना चाहिए था, वह नहीं आया है.
इस वार्तालाप की रिकॉर्डिग करके वह किसान अपने रास्ते पर चला गया और मेरा पत्रकार मित्र दूसरे मतदाताओं से पूछताछ करने लगा. तभी थोड़ी देर बाद वही किसान दौड़ता हुआ आया और आग्रह करने लगा कि उसका पहला वाला वक्तव्य रद्द कर दिया जाना चाहिए. कारण पूछने पर उसने तत्परता से अपने मोबाइल में दिखाया कि भावांतर योजना का पैसा उसके खाते में आ गया है, और अब वह भाजपा और शिवराज को ही वोट देगा.
इस किसान मतदाता द्वारा अचानक और फटाफट किया गया पक्ष-परिवर्तन क्या कहता है? इसका मतलब साफ है कि मतदाता उस नेता और सरकार का साथ देने के लिए तैयार है जो अपना वायदा पूरा करता है या पूरा करते हुए दिखता है. उसकी वफादारी किसी विचारधारा के साथ नहीं है. वह किसी के चेहरे या किसी की शख्सियत से प्रभावित नहीं है. उसका दावा सीधा है- जो उसे लाभ पहुंचाएगा, उसे उसका वोट मिलेगा. तकरीबन यही प्रवृत्ति उन मतदाताओं में देखी गई थी जिनकी बातचीत उन्हें बताए बिना रिकॉर्ड की गई थी.
ये दोनों उदाहरण संकेत देते हैं कि भारत का मतदाता नेताओं की रैलियों और राजनीति के विचारधारात्मक आग्रहों के मुकाबले सरकारों की वायदा पूरी करने की क्षमताओं को अधिक महत्व देता है. अर्थात केवल योजनाएं घोषित करने से सरकारों का काम नहीं चलने वाला है. योजनाओं को धरती पर उतारना जरूरी है, तभी मतदाताओं की निष्ठा जीती जा सकती है.