धनबल का प्रभाव चुनाव प्रक्रिया की मुख्य चुनौती
By अवधेश कुमार | Published: April 20, 2019 07:23 PM2019-04-20T19:23:45+5:302019-04-20T19:23:45+5:30
चुनाव आयोग पिछले कई वर्षो से कह रहा है कि हमने चुनाव से बाहुबलियों के प्रभाव को तो खत्म कर दिया है लेकिन धनबलियों के प्रभाव को समाप्त करना संभव नहीं हो रहा है
चुनाव आयोग पिछले कई वर्षो से कह रहा है कि हमने चुनाव से बाहुबलियों के प्रभाव को तो खत्म कर दिया है लेकिन धनबलियों के प्रभाव को समाप्त करना संभव नहीं हो रहा है. इसको स्वीकार किया जाए तो अपराधियों के चंगुल से चुनाव को मुक्ति मिल चुकी है. बहुत सारे लोग इस निष्कर्ष से सहमत नहीं होंगे, लेकिन जिन्होंने 1970 के दशक से 1990 के पूरे दशक तक राजनीति और चुनाव का डरावना परिदृश्य देखा है, उनके लिए इससे काफी हद तक सहमत होने में समस्या नहीं है.
हालांकि वर्तमान चुनाव में खड़े हो रहे उम्मीदवारों पर दर्ज मुकदमों के आधार पर प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब इतनी संख्या में आपराधिक मुकदमे ङोल रहे उम्मीदवार मैदान में हैं तो फिर यह कैसे मान लिया जाए कि चुनाव पर अपराधियों का प्रभाव खत्म हो गया है?
लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में कुल 1644 उम्मीदवारों में से 1590 के शपथ पत्न वेबसाइट पर उपलब्ध हैं. इनमें से 251 उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की है. इनमें 167 पर गंभीर मामले हैं. यदि 16 वीं लोकसभा और इस दौरान की राज्यसभा का रिकॉर्ड देखें तो भी चिंता पैदा होती है. लोकसभा में 542 में से 179 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 114 सांसदों पर गंभीर मामले थे. राज्यसभा में 228 सदस्यों में से 51 पर आपराधिक मामले हैं.
चुनाव आयोग ने डेढ़ दशक पहले सरकार को सुझाव भेजा था कि 3 वर्ष या उससे ज्यादा सजा वाले मामले में यदि आरोपपत्न दाखिल हो जाए तो वैसे व्यक्ति को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाए, लेकिन इसे किसी सरकार ने स्वीकार नहीं किया. हालांकि जुलाई 2013 को उच्चतम न्यायालय ने फैसला दे दिया कि यदि दो वर्ष की सजा किसी को हो जाए तो उसकी सदस्यता उसी दिन रद्द हो जाएगी तथा अगले छह वर्षो तक वह चुनाव नहीं लड़ पाएगा. इसका असर हुआ है. हालांकि इन सारे आंकड़ांे को देखकर ऐसा लगता है कि चुनाव में राजनीति का अपराधीकरण मुद्दा नहीं बन पाता. उम्मीदवारी तो समझ में आती है लेकिन इतनी संख्या में ये जीतकर संसद एवं विधानसभाओं में कैसे पहुंच जाते हैं? किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है. जो वाकई सच्चा नेता होगा वह जनता के मुद्दों पर संघर्ष करेगा और उस पर मुकदमे दर्ज होंगे. जो मुकदमे दर्ज होंगे वे अपराध के ही होंगे.
अपराध केवल शरीर और हथियार से ही नहीं होता है, धन अर्जित करने के लिए कानूनों को ठेंगा दिखाना भी अपराध है. ऐसे आर्थिक अपराधी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का अध्ययन बताता है कि जिसके पास जितना ज्यादा धन, उसके चुनाव जीतने की संभावना उतनी ज्यादा. जाहिर है, यह बड़ा मुद्दा है. वर्तमान चुनाव में ही अभी तक करीब तीन हजार करोड़ की नकदी और मतदाताओं को दी जाने वाली उपहार सामग्रियां जब्त की जा चुकी हैं. यह राजनीति का नए तरीके का अपराधीकरण है.