गिरीश्वर मिश्र क ब्लॉग: स्थानीय भाषाओं को पोषण मिलने से ही बढ़ेगी देश की सामर्थ्य

By गिरीश्वर मिश्र | Published: September 26, 2022 02:45 PM2022-09-26T14:45:21+5:302022-09-26T14:46:43+5:30

अंग्रेजों के जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता टिकी रही क्योंकि नौकरशाही को उसका अभ्यास हो चुका था और निहित हित के चलते उसकी श्रेष्ठता की पैरवी भी कई-कई कोनों से होती रही। भाषा को लेकर भेदभाव का विषय उलझता गया और राजनीति के स्वार्थ के बीच भारतीय भाषाएं अंग्रेजी की तुलना में न केवल अधिकारहीन होती गईं बल्कि आपस में भी उलझ गईं। 

The country's power will increase only by getting nourishment for the local languages | गिरीश्वर मिश्र क ब्लॉग: स्थानीय भाषाओं को पोषण मिलने से ही बढ़ेगी देश की सामर्थ्य

गिरीश्वर मिश्र क ब्लॉग: स्थानीय भाषाओं को पोषण मिलने से ही बढ़ेगी देश की सामर्थ्य

Highlightsभाषाओं की विविधता देश की अनोखी और अकूत संपदा है, जिसकी शक्ति कदाचित तरह-तरह के कोलाहल में उपेक्षित ही रहती है। शिक्षा के माध्यम के सवाल को मुल्तवी रखा गया और अंग्रेजी के वर्चस्व को अक्षुण्ण रखा गया। जीवन-व्यापार में बदलाव आने के साथ-साथ भाषा की भूमिका में भी अनिवार्य रूप से बदलाव आता है।

भाषा मनुष्य जीवन की अनिवार्यता है और वह न केवल सत्य को प्रस्तुत करती है बल्कि उसे रचती भी है। वह इतनी सघनता के साथ जीवन में घुलमिल गई है कि हमारा देखना-सुनना, समझना और विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त होना यानी जीवन का बरतना उसी की बदौलत होता है। जल और वायु की तरह आधारभूत यह मानवीय रचना सामर्थ्य और संभावना में अद्भुत है। 

भारत एक भाग्यशाली देश है जहां संस्कृत, तमिल, मराठी, हिंदी, गुजराती, मलयालम, पंजाबी आदि जैसी अनेक भाषाएं कई सदियों से भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन संघर्षों को आत्मसात करते हुए अपनी भाषिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही हैं। भाषाओं की विविधता देश की अनोखी और अकूत संपदा है, जिसकी शक्ति कदाचित तरह-तरह के कोलाहल में उपेक्षित ही रहती है। 

इन सब के बीच व्यापक क्षेत्र में संवाद की भूमिका निभाने वाली हिंदी का जन्म एक लोक-भाषा के रूप में हुआ था। परंतु भाषा स्वभाव से ही समय-संदर्भ में परिचालित होती है। वह विभिन्न प्रभावों को आत्मसात करते हुए रूप बदलती रहती है। हिंदी देश के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई और जन-संवाद के सभी रूपों में भारत और भारतीयता को सुदृढ़ करती रही, भाषा को संवैधानिक दर्जा मिला और उसके प्रयोग क्षेत्र का विस्तार होता रहा तथापि सत्ता की भाषा अंग्रेजी के आगे उसे ठिठकना पड़ा। 

अंग्रेजों के जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता टिकी रही क्योंकि नौकरशाही को उसका अभ्यास हो चुका था और निहित हित के चलते उसकी श्रेष्ठता की पैरवी भी कई-कई कोनों से होती रही। भाषा को लेकर भेदभाव का विषय उलझता गया और राजनीति के स्वार्थ के बीच भारतीय भाषाएं अंग्रेजी की तुलना में न केवल अधिकारहीन होती गईं बल्कि आपस में भी उलझ गईं। 

शिक्षा के माध्यम के सवाल को मुल्तवी रखा गया और अंग्रेजी के वर्चस्व को अक्षुण्ण रखा गया। ज्ञान-विज्ञान, नीति आदि के क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं में विचार दृष्टि से क्षमता बढ़ाने की कोशिशें सतही बनी रहीं। इन सब चुनौतियों के बावजूद हिंदी की चेतना विस्तृत होती रही। चूंकि देश काल स्थिर नहीं रहते इसलिए भाषा का मानवीय उद्यम अनेक रूप लेता रहता है। 

जीवन-व्यापार में बदलाव आने के साथ-साथ भाषा की भूमिका में भी अनिवार्य रूप से बदलाव आता है। अतः समय बीतने के साथ संचार तकनीक में जो परिवर्तन हुआ उसके अंतर्गत भाषा के भी कई संस्करण होते गए। भाषिक उत्पादों की वाचिक से हस्तलिखित, फिर मुद्रित और अब डिजिटल प्रस्तुति ने न केवल उनके संकलन और संग्रह के उपायों को बदला है बल्कि उसी के साथ भाषा-प्रयोग के रूप भी चमत्कारी रूप से बदले हैं।

Web Title: The country's power will increase only by getting nourishment for the local languages

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