हेमधर शर्मा का ब्लॉग: बस्ते के बढ़ते बोझ और खेल के घटते मैदानों से जा रही छात्रों की जान !

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: September 5, 2024 11:25 AM2024-09-05T11:25:09+5:302024-09-05T14:38:22+5:30

एक जमाना था, जब ‘गुरुजी’ कहलाने वाले मास्टर साहब ऐसी सख्ती से पेश आते थे जिसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती। लेकिन मजाल है कि किसी विद्यार्थी के मन में  आत्महत्या का कभी ख्याल भी आया हो! फिर ऐसा क्यों है कि नजाकत में पली-बढ़ी आज की नई पीढ़ी जरा भी तनाव बर्दाश्त नहीं कर पाती?

Students are losing their lives due to increasing burden of school bags and decreasing playgrounds | हेमधर शर्मा का ब्लॉग: बस्ते के बढ़ते बोझ और खेल के घटते मैदानों से जा रही छात्रों की जान !

फोटो क्रेडिट- (एक्स)

Highlightsजीवन बेशक एक संघर्ष है, लेकिन जीवन एक खेल भी हैहमने तीन-चार साल के नर्सरी-केजी के बच्चों पर भी पढ़ाई का भारी-भरकम बोझ तो डाल दियालेकिन, उनको खेलने का स्पेस देना शायद भूल गए हैं

देश में विद्यार्थियों की आत्महत्या की बढ़ती दर चौंकाने वाली है, जो पिछले दो दशकों में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। यहां तक कि कुल आत्महत्याएं दो प्रतिशत की दर से बढ़ी हैं, जबकि छात्रों की आत्महत्या 4.2 प्रतिशत की दर से। अभी तक किसान आत्महत्याएं ही देश को चिंता में डालती रही हैं, क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं में फसल बर्बाद होने पर किसान समझ नहीं पाता कि अपने परिवार का पेट कैसे भरे। वैसे किसानों की बदहाली पुराने जमाने से ही चली आ रही है लेकिन किसान आत्महत्या नये जमाने की चीज लगती है। इसलिए यह तो है कि लोगों की सहनशक्ति कमजोर हुई है, लेकिन विद्यार्थियों की आत्महत्या फिर भी ऐसी चीज है जो किसी भी दृष्टि से हजम नहीं होती।

एक जमाना था, जब ‘गुरुजी’ कहलाने वाले मास्टर साहब ऐसी सख्ती से पेश आते थे जिसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती। लेकिन मजाल है कि किसी विद्यार्थी के मन में  आत्महत्या का कभी ख्याल भी आया हो! फिर ऐसा क्यों है कि नजाकत में पली-बढ़ी आज की नई पीढ़ी जरा भी तनाव बर्दाश्त नहीं कर पाती?

जीवन बेशक एक संघर्ष है, लेकिन जीवन एक खेल भी है। हमने तीन-चार साल के नर्सरी-केजी के बच्चों पर भी पढ़ाई का भारी-भरकम बोझ तो डाल दिया है लेकिन उनको खेलने का स्पेस देना शायद भूल गए हैं! पुरानी पीढ़ी के बच्चे ऐसा नहीं है कि पढ़ाई कम करते थे तो बाकी समय खाली बैठे रहते थे। खाली बैठना बच्चों के स्वभाव में ही नहीं होता। 

दरअसल खेलकूद कर वे खुद को इतना मजबूत बना लेते थे कि मास्टरजी द्वारा स्केल से उल्टे हाथ पर मारने का दर्द भी थोड़ी देर में ही भूल जाता था. वैसे प्राचीन गुरुकुलों के गुरुजी भी अपने शिष्यों से कम कठोर परिश्रम नहीं करवाते थे, जिनकी कहानियां जगप्रसिद्ध हैं. संगीत सिखाने के लिए शागिर्दों से बरसों तक पहले अपने घर की सेवा-टहल करवाने वाले उस्तादों की कहानियां आप बाद में खुद उत्साद बनने वाले किसी भी शागिर्द से सुन सकते हैं. कहते हैं ऐसा करके गुरुजी अपने शिष्यों के मन में ज्ञान के प्रति और उस्ताद अपने शागिर्दों में संगीत के प्रति प्यास को तेज करते थे. जाहिर है प्यास जितनी तीव्र होगी, पानी का महत्व उतना ही समझ में आएगा.

आज हम खेलकूद के स्पेस को कम करके छात्रों को शारीरिक रूप से जहां कमजोर बना रहे हैं, वहीं स्कूल के बस्ते को वजनी बनाकर मानसिक बोझ बढ़ा रहे हैं. खेल के नाम पर कलंक बने मोबाइल गेम भी बच्चों को मानसिक रूप से ही थकाते हैं.

कुछ साल पहले छात्रों की बढ़ती आत्महत्याओं को देखते हुए उन्हें कुछ कक्षाओं में फेल नहीं किए जाने की नीति बनी थी, लेकिन फिर पाया गया कि परीक्षा का डर नहीं होने पर विद्यार्थी पढ़ाई में कमजोर हो जाते हैं. नई शिक्षा नीति से अपेक्षा थी कि पढ़ाई को वह खेलों की तरह रोचक बनाए और व्यावहारिक जीवन से जोड़े, ताकि विद्यार्थी खेल-खेल में पढ़ सकें. अफसोस, कि हम उनमें पढ़ाई के प्रति प्यास तो जगा नहीं पा रहे और खेलों के प्रति प्यास को बुझाने का उन्हें अवसर नहीं दे रहे हैं. ऐसे में हम छात्रों के और किस हश्र की अपेक्षा कर सकते हैं?

कोरे कागज पर लिखी पंक्तियां तभी अर्थपूर्ण होती हैं, जब उनके शब्दों के बीच स्पेस हो, वरना उनका सौंदर्य नष्ट हो जाता है. बच्चों को खेल का स्पेस न देकर हम क्यों उनके ज्ञान के सौंदर्य को नष्ट करने पर तुले हैं?

Web Title: Students are losing their lives due to increasing burden of school bags and decreasing playgrounds

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