श्रीप्रकाश शर्मा का ब्लॉग: असफलताओं से निराश नहीं होना ही है जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 22, 2020 12:48 PM2020-07-22T12:48:30+5:302020-07-22T12:48:30+5:30
थॉमस अल्वा एडिसन अमेरिका के एक महान आविष्कारक और विचारक थे. उनके नाम से हजारों आविष्कार हैं जो उन्हें विश्व में ऐतिहासिक उपलब्धि प्रदान करते हैं. क्या आप जानते हैं कि उन्होंने केवल तीन महीने की स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी?
पिछले दिनों सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन (सीबीएसई) और कई राज्यों के शिक्षा बोर्डो की दसवीं और बारहवीं परीक्षाओं के परिणाम घोषित हुए हैं.
परिणामों में कतिपय छात्नों के शानदार वैयक्तिक परफॉरमेंस से जहां उनमें हर्ष व्याप्त है तो वहीं दूसरी तरफ प्रिविलेज्ड अंकों की कैटेगरी में पहुंच न पाने और अपने खूबसूरत सपनों को साकार न कर पाने वाले छात्नों में हताशा और निराशा का तेज बवंडर आ खड़ा हुआ है.
सपने देखना स्वाभाविक है और उनके पूरे नहीं होने पर निराश और हताश होना एक मानवीय प्रवृत्ति है, जिससे इनकार करना आसान नहीं है. किंतु जब परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाने के कारण हताश होकर छात्न खुद के जीवन को ही खत्म कर ले तो फिर स्थिति सामान्य नहीं रह जाती है और वह हमारे लिए गंभीर चिंता का प्रश्न बन जाता है.
छात्रों द्वारा खुदकुशी से संबंधित आंकड़ों की बात करें तो तथ्यों के आईने में एक डरावनी तस्वीर उभरकर सामने आती है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट की मानें तो यह सोचकर भय लगता है कि भारत में औसतन प्रत्येक दिन 28 छात्र आत्महत्या कर लेते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ही एक अन्य लेटेस्ट रिपोर्ट की मानें तो देश में वर्ष 2016 में 9478, वर्ष 2017 में 9905 और वर्ष 2018 में 10159 छात्नों द्वारा खुदकुशी की घटनाएं दर्ज की गई हैं. आत्महत्या के इन डरावने फैक्ट्स और फिगर्स में देश में छात्नों के मानसिक स्वास्थ्य की निरंतर बिगड़ती दशा का एक स्याह और कड़वा सच छुपा हुआ है.
गंभीर विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में जीवन में परीक्षा के परिणाम इतने अहम होते हैं कि विफलता की स्थिति में और अपने लक्षित अंकों को प्राप्त न कर पाने की दशा में इंसान के जीने के लिए कोई अवलम्ब शेष नहीं रह जाता है? दूसरा प्रश्न कम महत्वपूर्ण नहीं है - क्या परीक्षा और इसके परिणामों की संजीदगी जीवन-मृत्यु सरीखी ही अहम और युगांतकारी होती है?
1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के संक्रमण काल में जबकि पूरी दुनिया एक अदद परिवर्तन के दौर से गुजर रही है और जिनके परिणामस्वरूप जीवन और करियर के शीर्ष पर पहुंचने के लिए एक अजीब गला-काट प्रतियोगिता का वातावरण तैयार हो गया है, तो हमें मानव-अस्तित्व पर छाए इस संकट पर एक गंभीर आत्मचिंतन की दरकार है.
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर असफलता की स्थिति में मन पर किस प्रकार नियंत्नण किया जाए ताकि जीवन को मुख्तलिफ अवांछित परेशानियों से महफूज रखा जा सके और नई ऊर्जा और प्रेरणा के साथ बिना हिम्मत हारे हुए सफलता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए बार-बार कोशिशें की जा सकें.
थॉमस अल्वा एडिसन अमेरिका के एक महान आविष्कारक और विचारक थे. उनके नाम से हजारों आविष्कार हैं जो उन्हें विश्व में ऐतिहासिक उपलब्धि प्रदान करते हैं. क्या आप जानते हैं कि उन्होंने केवल तीन महीने की स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी? कहते हैं कि वे मंद बुद्धि छात्न थे और इसके कारण स्कूल के हेडमास्टर ने उनकी मां के नाम एक लेटर के साथ उन्हें यह कहते हुए वापस कर दिया था कि उनका बेटा फॉर्मल एजुकेशन के लिए फिट नहीं है, अत: बेहतर होगा कि वे अपने बेटे को अपने घर पर ही पढ़ाएं.
किंतु एडिसन की मां बहुत ही साहसी थीं और इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थीं. एडिसन को कम सुनाई देता था. वह अपनी मां की आर्थिक मदद करने के लिए अखबार बेचा करते थे. बेशुमार समस्याओं के बावजूद वे एक ऐसे महान वैज्ञानिक बनने में सफल हुए जिनके नाम आज भी सबसे अधिक आविष्कारों के पेटेंट राइट्स रजिस्टर्ड हैं.
सारांश यह कि विश्व इतिहास के पन्ने ऐसे महापुरुषों की जीवन गाथाओं से भरे हैं, जिनकी ऐतिहासिक और हैरतअंगेज उपलब्धियां किसी परीक्षा के परिणाम की मोहताज नहीं थीं.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी परीक्षा विशेष में अच्छा न कर पाने पर खुद की दक्षता और योग्यता में विश्वास करना छोड़ कर जीवन जीने से मना कर देने में जीवन की सबसे बड़ी हार होती है.
ऐसी स्थिति में जीवन को और अधिक कठिन परिश्रम और संघर्ष के लिए मना लेने में ही जीवन जीने का सच्चा सार छुपा होता है.