ब्लॉग: संविधान की भावना, EWS आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी और इसके मायने
By अश्वनी कुमार | Published: December 6, 2022 10:29 AM2022-12-06T10:29:33+5:302022-12-06T10:29:33+5:30

ब्लॉग: संविधान की भावना, EWS आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी और इसके मायने
जनहित अभियान (नवंबर 2022) मामले में सुप्रीम कोर्ट का बहुमत का फैसला देश के अंतर-पीढ़ीगत न्याय को आगे बढ़ाने के सामूहिक प्रयास में एक ऐतिहासिक क्षण है. यह पहचान और प्रतिनिधित्व से आगे, सरकारी रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को सकारात्मक कार्रवाई और सुधारात्मक न्याय के एक उपकरण के रूप में देखता है.
103वें संवैधानिक संशोधन का समर्थन करते हुए, न्यायालय ने ‘अगड़ी जातियों’ के अब तक बहिष्कृत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को आरक्षण का लाभ देकर सकारात्मक कार्य किया है. इसने संशोधन को कानूनी चुनौती दिए जाने को निरस्त कर दिया, जो मुख्य रूप से इस आधार पर थी कि केवल आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण वर्गीय भेदभाव का एक प्रकार है, जो संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य और संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन है (केशवानंद भारती 1973).
न्यायालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के गैर-क्रीमीलेयर को 10 प्रतिशत आरक्षण से बाहर करना भेदभावपूर्ण था और संशोधन ने आरक्षण पर न्यायिक रूप से अनिवार्य 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया है.
इस प्रकार बहुमत ने संशोधन की इस मूल भावना का समर्थन किया कि सरकार की सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों के अंतर्गत आर्थिक रूप से उन पिछड़ों के सशक्तिकरण की आवश्यकता है, जो मौजूदा जाति आधारित आरक्षण के अंतर्गत नहीं आते हैं. बहुमत के दृष्टिकोण को परिभाषित करने वाला तर्क, जिसे अल्पमत द्वारा भी सिद्धांत रूप में स्वीकार किया गया है, यह है कि मानवीय गरिमा पर गरीबी का प्रभाव जाति के आधार पर नहीं है.
दरअसल, एक उत्पीड़ित औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में हमारे अपने अनुभव सहित उत्पीड़ितों का इतिहास हमें बताता है कि उत्पीड़न आर्थिक अभाव से जुड़ा हुआ है. सामाजिक और आर्थिक असमानताएं दूर करने की बात संविधान में कही गई है. संशोधन को बरकरार रखने के पक्ष में, बहुमत ने तर्क दिया कि आरक्षण समानता के लिए एक अपवाद था और इसलिए संविधान की मूल संरचना का हिस्सा नहीं है.
इसलिए इसे उन लोगों के लाभ के लिए संशोधित किया जा सकता है जो पहले से इसके सकारात्मक प्रावधानों का लाभ नहीं उठा रहे हैं. इसने माना कि संशोधन के तहत नए लाभार्थियों को आरक्षण के उद्देश्य से एक अलग श्रेणी के रूप में माना जा सकता है. आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन को इस आधार पर उचित ठहराया गया है कि इसकी केवल पिछड़े वर्गों के संबंध में न्यायिक रूप से कल्पना की गई थी और यह ‘आने वाले समय के लिए अनम्य और अचल’नहीं थी.
अदालत ने पिछड़ेपन को एक निश्चित श्रेणी में मानने को खारिज कर दिया और इस बात को मान्यता दी कि बदलते समय के साथ वंचित समूह बदल सकते हैं और नए समूहों को भी इस श्रेणी में जोड़ा जा सकता है.
एक गतिशील संविधान में निहित राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया में, न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक पीढ़ी को संविधान को ‘जीवंत’ बनाए रखने के लिए आवश्यतानुसार नई चीजें जोड़नी चाहिए. हमारे समय की चेतना को देखते हुए, बहुमत का दृष्टिकोण संविधान को जीवंत मानते हुए उसके सम्मान पर आधारित है और राष्ट्रीय लक्ष्यों की उन्नति में इसकी निरंतर प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के लिए संविधान को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है, न कि एक ठहरे हुए समय में.
बहुमत का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि संसदीय लोकतंत्र में, व्यावहारिक समायोजन के माध्यम से परस्पर विरोधी हितों के सामंजस्य का प्रतिनिधित्व करने वाले नीति निर्धारण अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य हैं जिनकी न्यायिक आदेशों द्वारा अवहेलना नहीं की जानी चाहिए, जब तक कि वे स्पष्ट रूप से संविधान के विरुद्ध न हों. बहुमत के द्वारा निकाले गए यह निष्कर्ष न्यायशास्त्र की दृष्टि से अचूक हैं.
हालांकि, न्याय की कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया में, मामले में खंडित फैसला कानून और राजनीति के चौराहे पर जटिल सवालों पर प्रतिस्पर्धी तर्कों को बरकरार रखेगा. कानूनी सूक्ष्मता के अलावा, बहुमत का दृष्टिकोण वर्तमान में सुसंगत संवैधानिक न्याय के विचार की व्याख्या पर निर्भर करता है, जो संवेदनशीलता और आकांक्षाओं के बीच ‘तर्कसंगत जुड़ाव’ पर आधारित है.
इन सबसे ऊपर, यह आर्थिक रूप से वंचित वर्गों में सरकार की सशक्तिकरण की नीतियों से अब तक बहिष्कृत किए जाने की बेचैनी को संबोधित करता है, जिससे सुधारात्मक उपायों के माध्यम से संविधान की मूल भावना के साथ अन्याय न होने पाए.
हालांकि, जनहित अभियान के मामले में बहुमत द्वारा दिए गए फैसले में यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि ‘प्रतिपूरक क्षतिपूर्ति’ उस बिंदु तक नहीं पहुंच जाए जहां यह ‘समानता के नियम को खत्म कर दे.’ इसमें राजनीतिज्ञता और हमारी लोकतांत्रिक राजनीति की गुणवत्ता की कसौटी है. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था ‘संविधान की भावना अपने युग की भावना है.’ जनहित मामले में बहुमत के फैसले का यही अचूक संदेश है.