शिवाकांत बाजपेयी का ब्लॉगः खादी से अब हम सबको जोड़ें
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: October 8, 2018 04:31 AM2018-10-08T04:31:39+5:302018-10-08T04:31:39+5:30
वर्तमान में खादी को और प्रोत्साहन की आवश्यकता है और यह वही समय है कि जब केंद्र और राज्य सरकारों को खादी ग्रामोद्योग आयोग की उस सलाह को स्वीकार कर लेना चाहिए कि सभी शासकीय कर्मचारियों को सप्ताह में एक दिन खादी के वस्त्र पहन कार्यालय आना चाहिए
डॉ. शिवाकांत बाजपेयी
हाल ही में गांधी जयंती मनाई गई। गांधीजी का संदर्भ आते ही खादी का नाम भी आ ही जाता है। कभी खादी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक माना जाता था, किंतु आज वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। देश भर में खादी ग्रामोद्योग के नाम से खुले स्टोर सबसे बड़ी ‘स्टोर चेन’ मानी जाती है। ऐसे भी लोग हैं जो यह मानते हैं कि वर्तमान में फैशन का दौर खादी के इस्तेमाल को नई ऊंचाइयां दे रहा है। वस्तुत: खादी का प्रचलन तो हमेशा ही था, अब यह फैशन में भी दिखाई दे रही है। लेकिन खादी पर गांधीजी के दर्शन को आगे बढ़ाने की कोशिशें समय के साथ न केवल कम, बल्कि कमजोर भी हुई हैं।
इतिहास इस बात का गवाह है कि हमारी आजादी में चरखे और खादी की भूमिका सत्याग्रह, स्वराज और स्वदेशी से कम नहीं थी। यह सिर्फ पहनने वाला परिधान नहीं, बल्कि आजादी का बाना था और पहनने वाला स्वतंत्रता सेनानी। जिसका अभिमान सहित एक ही लक्ष्य होता था केवल आजादी। बापू ने अपनी आत्मकथा, सत्य के प्रयोग में खादी के जन्म की रोचक कहानी का वर्णन किया है।
गांधीजी के अनुसार - ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि सन् 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने ‘हिंद-स्वराज’ में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगाली मिट सकती है और यह तो सबके समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी, उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा। सन् 1915 में मैं दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान वापस आया, तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं किए थे। आश्रम के खुलते ही उसमें करघा शुरू किया था।
काठियावाड़ और पालनपुर से करघा मिला और एक सिखाने वाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया। परंतु मगनलाल गांधी शुरू किए हुए काम को जल्दी छोड़ने वाले न थे। उनके हाथ में कारीगरी तो थी ही। इसलिए उन्होंने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम में एक के बाद एक नए-नए बुनने वाले तैयार हुए। ।।हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेंगे नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी।’
यही है खादी के जन्म की कहानी। आज देश के लगभग सभी राज्यों में भिन्न-भिन्न प्रकार से खादी के पश्चिमी एवं देशी वस्त्रों का निर्माण किया जाता है। खादी कुछ धागों से बुना कपड़ा मात्र नहीं था, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता का जयघोष था, जहां पर बिना वर्ण-भेद, अमीर-गरीब सभी खादी धारण करते थे। अर्थात खादी ने न केवल समरसता और एकता का भाव जागृत किया, बल्कि देश में हाथ से बने कपड़ों के व्यापार का द्वार खोल दिया था।
हालांकि वर्तमान में खादी को और प्रोत्साहन की आवश्यकता है और यह वही समय है कि जब केंद्र और राज्य सरकारों को खादी ग्रामोद्योग आयोग की उस सलाह को स्वीकार कर लेना चाहिए कि सभी शासकीय कर्मचारियों को सप्ताह में एक दिन खादी के वस्त्र पहन कार्यालय आना चाहिए, ताकि खादी को प्रोत्साहित किया जा सके और बुनकरों की भी सहायता हो सके। आइए हम सभी खादी को पहनने की शुरुआत करें ताकि हम भी आजादी की कड़ियों से खुद को जोड़ सकें, जिससे यह हम सबकी खादी बन जाए।