शरद जोशी का ब्लॉग: कृपया इसे पढ़ने का कष्ट न करें
By शरद जोशी | Published: May 11, 2019 12:44 PM2019-05-11T12:44:12+5:302019-05-14T14:44:05+5:30
पढ़ेंगे क्या खाक, जब आज मेरे सामने कोई विषय ही नहीं है और विषय तो फिर पैदा किया जा सकता है, परंतु आज मैं लिख तो बिलकुल ही नहीं सकता. आज आप और कुछ पढ़ डालिए. देखिए, इस अपार-अपरंपार संसार में कितना साहित्य है और आपकी समझ में फेर न हो तो कई बड़े अच्छे लेखक हैं.
सत्यप्रिय मित्र ने प्रयोग मारा है कि - ‘अगर कहीं मैं तोता होता/ तो क्या होता? तो क्या होता?/तोता होता/ तो तो तो तो ता ता ता ता/ होता होता होता होता!’
यदि मैं कभी तोता होता तो यह अखबार में लिखने के लिए कलम न उठाना पड़ता और आराम से ‘सुखी परेवा जगत में एको तुमहीं विहंग’ बनकर डोलता रहता.
जैसे मैं कुछ भी नहीं लिख सकने की हालत में हूं. मेरी कलम और मेरा दिमाग ‘परिक्रमा’ खा रहा है और डर है कि कहीं मैं खुद ‘परिक्रमा’ खाकर न गिर पडूं. अत: मेरा यह निवेदन है कि आज आप न पढ़ें.
पढ़ेंगे क्या खाक, जब आज मेरे सामने कोई विषय ही नहीं है और विषय तो फिर पैदा किया जा सकता है, परंतु आज मैं लिख तो बिलकुल ही नहीं सकता. आज आप और कुछ पढ़ डालिए. देखिए, इस अपार-अपरंपार संसार में कितना साहित्य है और आपकी समझ में फेर न हो तो कई बड़े अच्छे लेखक हैं.
अभी-अभी शरद पूनो गुजर गई. आप इन दिनों चांद के विषय में कुछ पढ़ डालें. चांद पर इतना लिखा गया है कि यह एक अलग किताब का विषय हो सकता है. यदि आप कोई दूसरी कहानी पढ़ डालें तो भी कोई नुकसान नहीं है, बड़ा आनंद ही आएगा. मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि आज मेरे पास कुछ भी लिखने को नहीं है.
आप सोचोगे, इसका दिवाला मानसिक रूप से शायद आउट हो गया है. शायद सच भी हो; पर आज न लिख पाने की वजह तो यही है. इस कारण मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि आज मैं किसी भी विषय पर कुछ नहीं लिख सकूंगा.
यह बात नहीं है कि शरद पूनो की चांदनी रात को मैंने श्री कुमार गंधर्व का गीत सुन लिया, अबादास की मृदंग सुन ली और बंडू भैया की पेटी सुन ली तो मेरी कलम शरमा गई; कि अगर ऐसी साधना न कर पाएं और लिखकर लोगों के सामने रखें, यह अच्छा नहीं है.
ऐसी बात नहीं है. मैं जरा बेशरम हूं. मुङो जरा भी शरम नहीं है. मेरे पास लिखने को नहीं हो, न स्थिति हो, न काबिलियत हो तो भी लिख डालता हूं. पर आज जरा मजबूर हूं. कृपया आप आज न पढ़ें.
आप पढ़ ही गए न! लेखक की तरह पाठक भी बेशरम निकला जबकि मैं शुरू में कह चुका हूं कि कृपया आज न पढ़ें.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)