संतोष देसाई का ब्लॉग: काम के आधार पर जीतने की राजनीति
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 17, 2020 02:26 PM2020-02-17T14:26:06+5:302020-02-17T14:56:27+5:30
आम आदमी पार्टी की जीत का अंतर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. पांच वर्ष पहले के जीत के अंतर को कमोबेश कायम रखना कोई मामूली बात नहीं है. यह सच है कि भाजपा के वोट प्रतिशत में पिछली बार के मुकाबले सुधार हुआ है और उसने पिछली बार से पांच सीटें ज्यादा भी हासिल की हैं, लेकिन यह ऐसा आंकड़ा नहीं है जिससे वह संतुष्ट या खुश हो सके.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सीएए का विरोध करने वालों को देशविरोधी बताने और केजरीवाल के साथ उनका संबंध जोड़ने की भरसक कोशिश की. लेकिन केजरीवाल ने ध्रुवीकरण के सभी संभावित मुद्दों - जेएनयू, जामिया और शाहीन बाग को लेकर पूरी सावधानी बरती और भाजपा के अभियान को निष्प्रभावी कर दिया.
आम आदमी पार्टी की जीत का अंतर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. पांच वर्ष पहले के जीत के अंतर को कमोबेश कायम रखना कोई मामूली बात नहीं है. यह सच है कि भाजपा के वोट प्रतिशत में पिछली बार के मुकाबले सुधार हुआ है और उसने पिछली बार से पांच सीटें ज्यादा भी हासिल की हैं, लेकिन यह ऐसा आंकड़ा नहीं है जिससे वह संतुष्ट या खुश हो सके.
पिछले विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद भाजपा के पास व्यवहार्य विकल्प बनने के लिए पांच साल का समय था, लेकिन उसने इसके लिए कुछ खास नहीं किया. 2020 में उसके पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई उम्मीदवार नहीं था. उसने सिर्फ हिंदू वोटों को संगठित करने की उम्मीद से देशभक्ति का कार्ड खेला. लेकिन केजरीवाल के अपने पांच वर्षो के विकास कार्यो को लेकर जनता के सामने जाने की तुलना में भाजपा का प्रचार अभियान खोखला साबित हुआ.
इस जोरदार जनादेश से तीन बातें स्पष्ट हैं. पहला, देशभक्ति की भावनाओं को उभारने की अपनी एक सीमा है और इससे दूरदृष्टि का अभाव स्पष्ट तौर पर सामने आ जाता है. दूसरा, किसी पार्टी को चुनाव जीतने के लिए एक ठोस आधार की जरूरत होती है. केवल जातीय समीकरण और चुनावपूर्व किए जाने वाले वादे अब पर्याप्त नहीं हैं. भाजपा ने सीएए के विरोध को अपना आधार बनाया लेकिन आम आदमी पार्टी द्वारा पांच वर्षो में किए गए काम अधिक प्रभावी सिद्ध हुए.
तीसरा, अरविंद केजरीवाल अपने पिछले कार्यकाल के उत्तरार्ध में अधिक परिपक्व होकर सामने आए. उन्होंने मोदी पर टीका-टिप्पणी करनी बंद की और केंद्र के साथ संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया. उन्होंने महसूस किया कि केंद्र के साथ बार-बार की तकरार उन्हें कमजोर दिखा रही थी. हिंदू पहचान को खुलकर अपनाने से वे कतराए नहीं और एक कार्यकर्ता के बजाय नेता और मुख्यमंत्री के रूप में अपनी छवि बनाने के प्रति सचेत हुए.
हकीकत यह है कि केजरीवाल ने केवल चुनाव के समय ही नहीं बल्कि अपने पूरे कार्यकाल के दौरान प्रशासन की छोटी-छोटी बातों पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया. भारतीय राजनीति में यह उत्साहजनक संकेत है. इसके उलट भाजपा के चुनाव अभियान में ध्रुवीकरण पर जोर रहा, जिसकी हार हुई.