एन. के. सिंह का ब्लॉगः इससे तो राज्यों को शोषण का हथियार मिलेगा

By एनके सिंह | Published: May 17, 2019 07:19 AM2019-05-17T07:19:03+5:302019-05-17T07:19:03+5:30

सुप्रीम कोर्ट को इन दो विरोधाभासी नियमावलियों में बिहार सरकार की सदाशयता दिखी. सरकार की दलील को द्वि-सदस्यीय पीठ ने फैसले में मूल आधार मानते हुए कहा कि बचे पैसे से नए स्कूल खोले जा रहे हैं, अध्यापक-छात्र अनुपात बढ़ाया जा रहा है.

right to education: Employed teacher and instructor allowances government teacher | एन. के. सिंह का ब्लॉगः इससे तो राज्यों को शोषण का हथियार मिलेगा

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‘केंद्र सरकार या राज्य सरकारें या निकाय प्रशासन, जैसी स्थिति हो, उन विद्यालयों के, जिनका स्वामित्व और प्रबंधन उनके हाथ में है, शिक्षकों की सेवा शर्तें, वेतन व भत्ते अधिसूचित करेंगे ताकि भविष्य के लिए शिक्षकों का एक दक्ष एवं स्थायी कैडर तैयार किया जा सके.’ भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 8 अप्रैल, 2010 में बनी नियमावली ‘बच्चों को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का अधिकार’, 2010 के खंड 6 में वर्णित प्रथम उपखंड में आदेशित किया. इसके उपखंड-3 में है, ‘समान अर्हता अनुभव के आधार पर शिक्षकों का वेतन और भत्ता, चिकित्सा सुविधाएं, पेंशन, भविष्य निधि, ग्रेच्युटी व अन्य लाभ समान होंगे.’ 

लेकिन दो साल बाद 3 अप्रैल, 2012 को प्रभाव में आई बिहार पंचायत प्रारंभिक टीचर्स (नियोजन एवं सेवा शर्ते) नियमावली, 2012 का रूल 15 (अ)(1) कहता है, ‘पंचायत प्रारंभिक शिक्षक निम्नवत एकमुश्त पगार के हकदार होंगे’ और इसका उपबंध 10 कहता है कि इस नियमावली के तहत नियोजित अध्यापक व इंस्ट्रक्टर किसी भत्ते के हकदार नहीं होंगे.’

इन दोनों उपखंडों से दो बातें स्पष्ट होती हैं. पहला : केंद्र के स्पष्ट निर्देश की अवहेलना जबकि केंद्र इस मद में आने वाले व्यय का 60 प्रतिशत वहन करता है, और दो : अपने ही द्वारा बनाए गए न्यूनतम वेतन में जो वेतन मजदूरों या अर्ध-दक्ष मजदूरों को दिया जाता है, उससे भी कम पर अध्यापक रखे जा सकते हैं क्योंकि बेरोजगारी भीषण है. जिस समय इस नियमावली के तहत ‘मास्साब’ को मात्र 5000 रुपए प्रतिमाह एकमुश्त दिए जाने लगे उस समय ईंट-गारा ढोनेवाले मजदूर को गांव में भी 200-250 रु. रोज मिलते थे. उधर केंद्र की अपेक्षा थी कि ऐसे वेतन और भत्ते दें जिससे भविष्य के लिए अध्यापकों का दक्ष और स्थायी कैडर तैयार हो सके. यही कारण था कि 31 अक्तूबर, 2017 के फैसले में उच्च न्यायलय ने बिहार सरकार की इस नियमावली का उपरोक्त उपबंध निरस्त कर दिया. बिहार सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई जिसने विगत 10 मई को हाईकोर्ट का आदेश पलट दिया. 

सुप्रीम कोर्ट को इन दो विरोधाभासी नियमावलियों में बिहार सरकार की सदाशयता दिखी. सरकार की दलील को द्वि-सदस्यीय पीठ ने फैसले में मूल आधार मानते हुए कहा कि बचे पैसे से नए स्कूल खोले जा रहे हैं, अध्यापक-छात्र अनुपात बढ़ाया जा रहा है. अदालत ने कहा, ‘..और इसका असर यह है कि बालिकाओं का स्कूल में पंजीकरण बढ़ा, साक्षरता बढ़ी और यहां तक कि शिक्षा-जनित चेतना के कारण सकल प्रजनन दर घटी है.’ यानी शिक्षक अपना काम ‘दक्षता’ से कर रहे हैं, इस नगण्य पैसे में भी. ध्वनि यह निकलती है कि अगर सस्ते में तथाकथित ‘दक्ष’ शिक्षक मिल जाते हैं तो ज्यादा क्यों देना!

Web Title: right to education: Employed teacher and instructor allowances government teacher

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