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ब्लॉग: आरक्षण से भाजपा को हानि नहीं लाभ ही हुआ है, समझिए कैसे

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 30, 2022 08:39 IST

आरक्षण को नापसंद करने के बावजूद भाजपा ने उसका अपने हितों में किस तरह इस्तेमाल किया है, यह देखना दिलचस्प है. उसने एक तीर से दो शिकार किए हैं.

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लालकृष्ण आडवाणी ने भले ही 1990 में न कहा हो, और भले ही भाजपा खुल कर आरक्षण का कभी विरोध न करती हो, लेकिन अंतिम विश्लेषण में वह आरक्षण समर्थक पार्टी नहीं है. यह देखना दिलचस्प है कि आरक्षण को नापसंद करने के बावजूद भाजपा ने उसका अपने हितों में किस तरह इस्तेमाल किया है. उसने एक तीर से दो शिकार किए हैं. 

पहला, ऊंची जातियों को गरीबी के नाम पर आरक्षण देकर उसने उन्हें अपना पक्का वोटर बना लिया. दूसरी ओर उसने कमजोर जातियों को मिलने वाले आरक्षण को भी स्पर्श नहीं किया. कमजोर जातियां भाजपा में आती जाती रहती हैं, लेकिन वे इस पार्टी की स्थायी वोटर भले ही न बन पाई हों, पर वे उसकी स्थायी विरोधी भी नहीं रह गई हैं.

नब्बे के दशक की शुरुआत में ही भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में यह मांग दर्ज कर दी थी. इसे धरती पर उतारने में भाजपा को तकरीबन तीस साल लग गए. लेकिन, ऐसा करके उसने पिछड़े वर्ग के साथ-साथ ऊंची जातियों को भी अपने वोटरों के रूप में साधने में सफलता हासिल कर ली. यह आसान काम नहीं था. लेकिन हिंदू राजनीति एकता के प्रोजेक्ट की सफलता के लिए ऐसा करना जरूरी था. अब सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाने के बाद ‘ईडब्ल्यूएस’ की श्रेणी संवैधानिक दृष्टि से पुष्ट हो गई है. 

आज कहीं भी नौकरी के लिए होने वाले साक्षात्कारों पर नजर डालिए- हर जगह एससी, एसटी और ओबीसी के साथ-साथ ईडब्ल्यूएस श्रेणी के तहत साक्षात्कार होते नजर आएंगे. आवेदकों की सूची देखिए- उसमें ऊंची जातियों के आवेदक भरे होंगे.

कौन नहीं जानता कि 2014 में मोदी को मिले वोटों में ऊंची जातियों का दिल खोल समर्थन शामिल था. लेकिन जल्दी ही मोदी सरकार ने देखा कि कुछ विधानसभा चुनाव में ऊंची जातियों ने लाजिमी तौर पर उन्हें वोट नहीं दिए. इसलिए उस समय यह सोचा जा सकता था कि उन्हें यह आरक्षण देकर मोदी के रणनीतिकारों ने केवल अपना यह डर दूर करने की कोशिश की है कि कहीं ऊंची जातियों के वोट उनके हाथ से फिसल न जाएं. 

विधानसभा चुनावों से पहले वे मान कर चल रहे थे कि ऊंची जातियां कितनी भी नाराज हों, आखिर में वे भाजपा को ही वोट देंगी. लेकिन नतीजों के बाद वे समझ गए कि इन जातियों के पास और भी विकल्प हैं. भले ही वे किसी गैर-भाजपा पार्टी को वोट देना पसंद न करें, पर वे मतदान के दिन घर तो बैठ ही सकती हैं और वोट डालने निकलने पर नोटा का बटन तो दबा ही सकती हैं. 

दोनों ही सूरतों में नुकसान भाजपा का ही होगा. तत्कालीन अंदेशे जो भी रहे हों, लेकिन कुल मिला कर मोदी की यह रणनीति कामयाब हुई. इस आरक्षण में 31 प्रतिशत वोटों को अमित शाह के वांछित 50 प्रतिशत वोटों की तरफ ले जाने की संभावना है. इसके जरिये भाजपा ने हिंदू समाज के विभिन्न हिस्सों को आरक्षण संबंधी प्रतियोगिता के बावजूद कुल मिला कर अपनी तरफ झुका पाया.

ऊंची जातियों की भाजपा से तत्कालीन नाराजगी का कारण केवल एससी-एसटी एक्ट पर उसका रवैया नहीं था. दरअसल, भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक लगातार देख रहा था कि मोदी के नेतृत्व में पूरी पार्टी का जम कर ओबीसीकरण हो रहा है. ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि बदलने के लिए मोदी द्वारा किए गए प्रयासों के कारण भाजपा वह संतुलन खोती जा रही है जिसके तहत वह दीनदयाल उपाध्याय के जमाने से ही ऊंची जातियों और पिछड़ों के एक हिस्से का चुनावी गठजोड़ हासिल करती रही थी. 

2014 के लोकसभा चुनाव में और फिर 2017 के उ.प्र. विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ऊंची जातियों के साथ गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों की स्वादिष्ट खिचड़ी पका कर असाधारण चुनावी सफलता हासिल की थी. यह पूरा समीकरण आर्थिक आधार पर आरक्षण के इस फैसले से बिगड़ भी सकता था, और संभल भी सकता था. आज हम नतीजे का आकलन कर सकते हैं. 

ऊंची जातियां इससे खुश हैं. और वह अंदेशा भी गलत साबित हुआ है कि इसका विपरीत असर उन पिछड़े और दलित समुदायों पर पड़ सकता है जो भाजपा के साथ हाल ही में जुड़े थे.

चुनाव नजदीक आने पर इस तरह के कदम उठा कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश मेंढक तौलने के समान होती है. पलड़े में एक मेंढक रखने पर दूसरा उछल कर नीचे गिर जाता है. 2017 में उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर की मदद लेकर ही भाजपा कमजोर जातियों के वोटों की गोलबंदी कर पाई थी. राजभर ने इस दस फीसदी आरक्षण के कदम का विरोध किया था. 

एक बारगी ऐसा लगा था कि ऊंची जातियों को पटाने के चक्कर में भाजपा ने इस सोशल इंजीनियरिंग को अपने ही हाथों से भंग कर दिया है. दूसरे, यह भी लगा कि वह उस शहरी और आधुनिक युवा वोटर को भी निराश कर सकती है जो बाजार अर्थव्यवस्था में प्रगति के मौकों की तलाश में है, और आरक्षण की नीति से चिढ़ता है. 

कुछ टिप्पणीकारों ने कहा भी कि पचास की जगह साठ फीसदी आरक्षण का अंदेशा इस बेरोजगार युवा वर्ग को भाजपा का विकल्प तलाशने की तरफ ले जा सकता है. लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ. भाजपा विरोधियों को उम्मीद थी कि इस पार्टी को आरक्षण से नुकसान होगा, पर अंतिम विश्लेषण में भाजपा को इससे लाभ ही हुआ है.

टॅग्स :आरक्षणभारतीय जनता पार्टीएल के अडवाणी
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