रमेश ठाकुर का ब्लॉग: सिनेमा ने समेट दिया ‘रंगमंच संसार’
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 27, 2020 12:40 PM2020-03-27T12:40:18+5:302020-03-27T12:40:18+5:30
थियेटर ने हमेशा से सबको बांधे रखा, सभी पर अलहदा छाप छोड़ी. पर जबसे रंगीन सिनेमा के पर्दे का आगाज हुआ, उसने रंगमंच की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया. एक जमाना था जब थियेटर, नाटक, नौटंकी आदि लोगों के मनोरंजन का मुख्य जरिया हुआ करते थे. आज विश्व रंगमंच दिवस है. इस क्षेत्र से जुड़े उस वक्त के खांटी कलाकार अपने बीते दिनों को जब याद करेंगे, तो महसूस करते होंगे कि रंगमंच का रंग कितना बदल चुका है.
रंगमंच और सिनेमा ‘सिक्के के दो पहलू’ जैसे जरूर हैं, पर विधाएं एक-दूसरे से जुदा हैं. सिनेमाई पर्दे का जन्म रंगमंच के स्टेजों की दीवारों की परछाइयों को देखकर ही हुआ है. यूं कहें कि उनकी नकल करके अपना विस्तार किया. इन्हीं कारणों के चलते रंगमंच आज सिनेमा से कहीं पीछे छूट गया है. हिंदुस्तान में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना रहा है. थियेटर का संबंध भारतीय दर्शकों से ही नहीं, बल्कि समूचे संसार से चोली-दामन जैसा रहा है.
थियेटर ने हमेशा से सबको बांधे रखा, सभी पर अलहदा छाप छोड़ी. पर जबसे रंगीन सिनेमा के पर्दे का आगाज हुआ, उसने रंगमंच की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया. एक जमाना था जब थियेटर, नाटक, नौटंकी आदि लोगों के मनोरंजन का मुख्य जरिया हुआ करते थे. आज विश्व रंगमंच दिवस है. इस क्षेत्र से जुड़े उस वक्त के खांटी कलाकार अपने बीते दिनों को जब याद करेंगे, तो महसूस करते होंगे कि रंगमंच का रंग कितना बदल चुका है.
थियेटर की गुजर चुकी दुनिया में अगर झांकें तो एक तस्वीर आंखों के सामने तैरने लगती है. नाटय़ कला का उदय सबसे पहले हिंदुस्तान में ही हुआ. ऋग्वेद के कतिपय कालखंडों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद मिलते हैं. उन संवादों में हम नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं. ऐसा प्रतीत होता है शायद उन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास किया था. पर जैसे-जैसे समय बदला, रंगमंच का रंग भी बदल गया.
इक्कीसवीं सदी आते-आते रंगमंच का संसार बदहाल हो गया और उनसे जुड़े कलाकार भी जिल्लत के जीवन में समा गए. थियेटर के कलाकारों की कला की कद्र करने वाला कोई नहीं रहा. कलाकारों के समक्ष आज खाने के भी लाले पड़े हुए हैं. यही कारण है कि उनके भीतर खुद की कला के प्रति उदासीनता बढ़ गई है. थियटर के ज्यादातर कलाकरों ने अपना क्षेत्र बदल दिया.
एक वक्त था जब पारंपरिक थियेटर के प्रति घरेलू दर्शकों में दीवानगी हुआ करती थी. शादी-ब्याह, सामाजिक स्तर पर होने वाले कार्यक्रमों व अन्य उत्सवों में नाटक-नौटंकी कभी शोभा बढ़ाती थी. लेकिन समय के साथ रिवायतें बदलीं, दस्तूर बदले, परंपराएं बदलीं और बदल गया दर्शकों के मनोरंजन का स्वाद. दरअसल, जबसे सिनेमा ने विस्तार किया है, अपनी जड़ें फैलाई हैं तभी से रंगमंच की दुनिया सिमट गई है.