रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह: फांसी के फंदे भी नहीं तोड़ पाए थे क्रांतिकारियों का हौसला

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: December 19, 2022 09:21 AM2022-12-19T09:21:21+5:302022-12-19T09:21:21+5:30

अंग्रेज समझते थे कि सजा इन क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़कर रख देंगी. लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा नहीं हुआ, फांसी के फंदे भी इन क्रांतिकारियों का हौसला नहीं तोड़ पाए.

Ram Prasad Bismil, Ashfaqulla Khan and Roshan Singh freedom fighters story | रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह: फांसी के फंदे भी नहीं तोड़ पाए थे क्रांतिकारियों का हौसला

फांसी के फंदे भी नहीं तोड़ पाए थे क्रांतिकारियों का हौसला (फोटो- ट्विटर)

हम जानते हैं कि देश में मदांध गोरी सत्ता ने 1927 में 19 दिसंबर को यानी आज के ही दिन चंद्रशेखर आजाद के प्रधान सेनापतित्व वाली हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के तीन क्रांतिकारियों- पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह को क्रमशः गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की मलाका जेलों में शहीद कर डाला था. इस कुसूर में कि वे अपने देश को उसके पंजों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन चला रहे थे. उन्होंने इस आंदोलन के लिए धन जुटाने के अभियान में नौ अगस्त, 1925 को एक एक्शन के तहत आठ डाउन पैसेंजर ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लखनऊ में काकोरी रेलवे स्टेशन के पास बलपूर्वक अपने कब्जे में ले लिया था.

गोरी सत्ता उनके इस एक्शन को ट्रेन डकैती कहती थी और उसे लेकर मुकदमे के लंबे नाटक के बाद उसने इन तीनों सहित राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी मौत की सजा दे डाली थी. कई अन्य क्रांतिकारियों को लंबी-लंबी कैद की सजाएं इनके अतिरिक्त थीं, जिनमें उम्रकैद तक शामिल थी. गोरी सत्ता समझती थी कि ये सजाएं इन क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़कर रख देंगी. लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा नहीं हुआ, फांसी के फंदे भी इन क्रांतिकारियों का हौसला नहीं तोड़ पाए.

इनमें रौशन सिंह उम्र में सबसे बड़े थे और अपने इस ‘बड़प्पन’ को लेकर सचेत भी रहते थे. इसे लेकर क्रांतिकारियों में हंसी-ठिठोली भी होती थी. कई बार क्रांतिकारी इस संभावना को लेकर कि गोरी अदालत उन्हें सजा के तौर पर उनके देशप्रेम का कितना बड़ा या छोटा पुरस्कार देगी, जेल में नाटक भी मंचित करते थे. 

चूंकि रौशन सिंह ने काकोरी एक्शन में भाग ही नहीं लिया था, गोरी पुलिस फिर भी उन्हें सजा दिलाने पर तुली हुई थी, क्रांतिकारियों को लगता था कि वह उन्हें मौत की तो क्या, कोई भी बड़ी सजा नहीं दिला पाएगी. लेकिन इसके मद्देनजर ऐसे नाटकों में जज बना क्रांतिकारी रौशन को मामूली सजा सुनाता तो वे बिफर कर हंगामा करने लगते. 

छह अप्रैल, 1927 को जज ने उन्हें सचमुच सजा सुनानी शुरू की तो कौन जाने उसकी अंग्रेजी उन्हें समझ में नहीं आई या उनके मन-मस्तिष्क पर जेल में खेले गए नाटकों का असर था, उन्हें लगा कि वास्तव में उन्हें बहुत कम सजा सुनाई गई है. 

इस पर उन्होंने ऊंची आवाज में जज से कहा, ‘मुझे बिस्मिल से कम सजा न सुनाई जाए.’ उनके साथियों ने बताया कि उन्हें बिस्मिल जितनी ही सजा सुनाई गई है तो आह्लादित से बिस्मिल के गले लगकर बोले, ‘तुम मुझे छोड़कर फांसी चढ़ना चाहते थे, लेकिन मैं तुम्हें वहां भी नहीं छोड़ने वाला. वहां भी तुम्हारे साथ रहूंगा.’ यह और बात है कि गोरी सत्ता ने दोनों को अलग-अलग जेलों में फांसी पर लटकाकर उनका यह अरमान पूरा नहीं होने दिया.

Web Title: Ram Prasad Bismil, Ashfaqulla Khan and Roshan Singh freedom fighters story

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