एनके सिंह का ब्लॉग: केंद्र सरकार के मंसूबों पर पानी फेरता फैसला
By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Published: November 2, 2018 08:51 AM2018-11-02T08:51:01+5:302018-11-02T08:51:01+5:30
सर्वोच्च न्यायालय के विगत 29 अक्तूबर के जनवरी में खंडपीठ गठित करने के फैसले के बाद मंदिर बनवाने और इसके लिए कानून लाने का दबाव मोदी सरकार पर उनके अपने लोगों और अपने संगठन ही नहीं, मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है।
(एन. के. सिंह )
राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि वर्ष 2019 के जनवरी माह में नई बेंच (खंडपीठ) बनाई जाएगी और वह बेंच इस बात का निर्धारण करेगी कि वह कब से सुनवाई करे और यह भी कि इस सुनवाई की प्रक्रिया क्या होगी, अनेक तरह की प्रतिक्रियाओं को जन्म देने लगा है। बजरंग दल के विनय कटियार ने कहा कि यह सब कांग्रेस करवा रही है जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्नी ने कहा कि न्याय में देरी न्याय न देने के समान है और केंद्र के लिए कानून बनाने का विकल्प खुला है। एक बड़े वर्ग ने कानून बनाने की वकालत की जबकि मामले में सर्वोच्च न्यायालय आए दोनों पक्षों के असली याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय में ही आस्था रखते हुए कहा कि फैसला अदालत से ही होना चाहिए।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र ने अपने कार्यकाल में एक परंपरा विकसित की थी जिसके तहत संविधान पीठ आमतौर पर बड़े मामलों में प्रतिदिन सुनवाई करती है और अभी भी उसका पालन किया जाता है लेकिन खंडपीठ के लिए यह कोई बाध्यता नहीं है, लिहाजा नई खंडपीठ को यह तय करना होगा कि सुनवाई की प्रक्रि या और नई तारीख क्या हो, और साथ ही सुनवाई प्रतिदिन हो या तारीख पर ही। लब्बोलुआब यह कि आम चुनाव के पहले इस मुद्दे पर फैसला आना लगभग असंभव है।
सर्वोच्च न्यायालय के विगत 29 अक्तूबर के जनवरी में खंडपीठ गठित करने के फैसले के बाद मंदिर बनवाने और इसके लिए कानून लाने का दबाव मोदी सरकार पर उनके अपने लोगों और अपने संगठन ही नहीं, मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है। सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में जनमंच से यह भाव व्यक्त किया। सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार संसद में कानून बनाने की मंशा रखती है, और अगर हां तो क्या वह कानून संसद के दोनों सदनों से पारित हो सकेगा? साथ ही क्या वह कानून संविधान-सम्मत होगा और अगर नहीं तो क्या यह भी चुनावी तमाशा हो कर रह जाएगा जैसा कि चुनाव के दौरान सरकारें किसी एक जाति या समुदाय के लिए आरक्षण पारित करवाती हैं और जब अदालत में वह अध्यादेश या कानून खारिज कर दिया जाता है तो चुनाव में यह कह कर कि हमने तो अपना काम कर दिया, आराम से उस पहचान समूह के वोट हासिल कर बैठ जाती हैं?
अप्रैल में आम चुनाव होंगे और सुप्रीम कोर्ट के जानकारों का मानना है कि अगर अगली जनवरी में बेंच गठित होती है तो वह नई बेंच चुनाव के पहले कोई फैसला करने की स्थिति में नहीं है। जरा सोचिए, अगर जन-अपेक्षाओं और तमाम मीडिया जुगाली के अनुरूप सर्वोच्च न्यायालय प्रतिदिन सुनवाई करके अगले कुछ दिनों में राम जन्मभूमि -बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में फैसला सुना देता तो इसका असर क्या होता। फैसला चाहे जिसके पक्ष में जाता, सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण तो होता ही, यानी अगर हिंदू खुश होता तो मुसलमान हताश और अगर मुसलमान खुश होता तो हिंदू नाराज। उच्च न्यायालय के फैसले से भी दोनों वर्ग नाराज ही रहते। अगर चुनाव के पूर्व ध्रुवीकरण होता तो सीधा फायदा भाजपा को मिलता क्योंकि वह बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है।
लिहाजा अदालत के लिए एक नैतिक संकट भी था कि जिस मुद्दे पर 70 साल से फैसला नहीं हुआ उस पर यह फैसला क्या कुछ महीने और नहीं रोका जा सकता। दूसरा, हाल के दौर में सत्ता की राजनीति में भी एक आदत सी बन गई है कि चार साल आराम से शासन करो फिर चुनाव करीब आने पर पहचान समूह में बंटे समाज में समस्या उभारो। इस आदत के कारण ही आज सबरीमला मंदिर में वयस्क (10-50 आयुवर्ग) महिलाओं के प्रवेश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की स्थानीय पुरुष भक्त-समाज ही नहीं, राजनीतिक दल भी धज्जी उड़ाते हुए देश की सबसे बड़ी अदालत को न केवल नसीहत दे रहे हैं बल्कि चेतावनी देने की हिमाकत भी कर रहे हैं यह कहते हुए कि अदालत जन -भावना का सम्मान करे।
जब अदालत की तीन सदस्यीय पीठ ने जनवरी में नया बेंच बनाने और फिर उस बेंच द्वारा मामले को सुनने की प्रक्रिया निर्धारित करने का फैसला दिया तो हवा में नैराश्य भाव, गुस्सा और क्षोभ देखा गया। अदालत ने कहा ‘अदालत की वरीयताएं आपकी वरीयताओं से भिन्न होती हैं’। खंडपीठ के इस फैसले से अब लगभग यह तय है कि जनवरी में पहले नई बेंच बनेगी, फिर बेंच यह फैसला करेगी कि सुनवाई प्रतिदिन होगी या तारीख डाली जाएगी और अगली तारीख उसी वरीयता क्र म के अनुसार होगी। नई बेंच को हजारों पृष्ठ के कागजात समझने के लिए वक्त चाहिए, वकीलों की फौज की दलीलें होंगी और तब फैसले की बारी आएगी।