राजेश बादल का ब्लॉग: प्रवासी श्रमिकों की व्यथा पर सियासी दांव-पेंच अमानवीय

By राजेश बादल | Published: May 26, 2020 11:26 AM2020-05-26T11:26:16+5:302020-05-26T11:26:16+5:30

जब इंसान रोजी-रोटी की चिंता करना छोड़ दे, उसे  दोनों तरफ मौत दिखाई दे रही हो और वह अपने गांव में जीने के लिए नहीं, बल्कि मरने के लिए सड़कों पर निकल पड़े तो वक्त की चेतावनी समझ लेना चाहिए.

Rajesh Badal's blog: Political bets on the pain of migrant workers, inhumanity | राजेश बादल का ब्लॉग: प्रवासी श्रमिकों की व्यथा पर सियासी दांव-पेंच अमानवीय

सांकेतिक तस्वीर

बेहद भयावह, घिनौना और अंदर तक हिला देने वाला मंजर है. करोड़ों कामगारों का भारत के भीतर सदी का सबसे बड़ा और बेकाबू पलायन है. बंटवारे के समय तो एक आबादी ने पाकिस्तान जाने का स्वैच्छिक फैसला किया था, लेकिन कोरोना काल का पलायन विवशता, भय, भूख और अस्तित्व की रक्षा के लिए है. इससे लोक के सामने तंत्र का चेहरा कांतिहीन और कुम्हलाया हुआ है.

जब इंसान रोजी-रोटी की चिंता करना छोड़ दे, उसे  दोनों तरफ मौत दिखाई दे रही हो और वह अपने गांव में जीने के लिए नहीं, बल्कि मरने के लिए सड़कों पर निकल पड़े तो वक्त की चेतावनी समझ लेना चाहिए. इससे खौफनाक तस्वीर और क्या हो सकती है ? जबड़े और मुट्ठियां भिंचीं हुई हैं. दिलों में मातम है. आंखों से आग बरसाते, सड़कों पर भटकते और भड़कते शोलों को शांत करना अब किसी भी सियासी पार्टी के बूते में नहीं रहा.

आजादी के बाद राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल किसी भी आपदा के समय इतने असहाय नहीं दिखाई दिए. विडंबना है कि आपातकाल में भी हमारी पार्टियां शतरंजी चालें नहीं छोड़तीं.  

संवेदनहीनता तथा राष्ट्रीय संकट की इस चरम सीमा पर भी राष्ट्र के लोगों को सियासती उठापटक पसंद नहीं आ रही है ? राजनीतिक पार्टियां इस त्रासद दौर में भी एक-दूसरे को काटने के लिए दौड़ रही हैं. पहले तो दो महीने तक ध्यान नहीं दिया गया. फिर एक दिन अचानक चार घंटे का नोटिस देकर इस विराट देश की घरबंदी कर दी गई.

करोड़ों लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई. जब अपने पैरों पर इस मुल्क ने अपनी मिट्टी में जाना चाहा तो उसे रोक दिया गया. सरकारी परिवहन सेवाएं ठप करने के फैसले ने आक्र ोश बढ़ा दिया. इस कड़ी में प्रदेशों के बीच आपसी समन्वय और तालमेल का अभाव दिखाई दिया. कांग्रेस ने जब उत्तर प्रदेश में बसों से कामगारों को भेजना चाहा तो पहले अनुमति दी गई, फिर उसे रद्द कर दिया गया.

इसके बाद इसे राजनीतिक बयानबाजी में उलझा दिया गया. बसों के बीच एम्बुलेंस क्यों हैं अथवा तिपहिए वाहन क्यों हैं -इस पर सवाल उठाए गए. क्या ये श्रमिक बीमार नहीं हो सकते थे ? क्या हर गांव तक बस जा सकती थी ? कहीं तिपहिए की जरूरत हो सकती थी तो किसी अंदरूनी गांव में केवल मोटरसाइकिल ही जा सकती थी तो कहीं ट्रैक्टर ही साधन के रूप में हो सकता था.

इस पर किसी को भी ऐतराज क्यों होना चाहिए था. क्या इसके पीछे प्रतिपक्ष को श्रेय नहीं लेने देने की मंशा रही थी. अगर ऐसा था तो यह और भी परेशान करने वाली बात है. क्या ये लोग एक बस की यात्रा करके कांग्रेस के स्थायी मतदाता बन जाते. इस राजनीतिक भय को सच मानें तो कहना होगा कि राज्य के दो अन्य बड़े दल-बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने इस संकट समाधान में कोई बारीक दिलचस्पी नहीं दिखाई.

यह और भी कष्टप्रद है कि अब राज्यों के बीच पीड़ितों के मसलों पर आरोप-प्रत्यारोप के दौर चल रहे हैं. कर्नाटक श्रमिकों को उनके गृह प्रदेश में जाने के लिए रेलें रोक देता है तो विरोध में अन्य प्रदेश उतर आते हैं. झारखंड विमानों से अपने श्रमिक बुलाना चाहता है तो उसे अनुमति नहीं मिलती. राजस्थान उत्तर प्रदेश के श्रमिकों को उनके प्रदेश भेजने का बिल भेज देता है तो उसी पर सियासी तीर चलने लग जाते हैं.

मध्यप्रदेश में सरकार कोरोना से निपटने में कम और चौबीस विधानसभा सीटों के उप चुनाव में अधिक व्यस्त नजर आती है. छत्तीसगढ़ केंद्र पर अनदेखी का आरोप लगाता है. मदद के नाम पर बैंक खातों में 500 रुपए स्थानांतरित करने पर  बखेड़ा खड़ा हो जाता है. ममता बनर्जी भाजपा पर कोरोना के बहाने राजनीति करने का आरोप लगाती हैं तो भाजपा कांग्रेस को कोरोना मसले पर सियासत नहीं करने की सलाह देती है.

पीड़ित मानवता की सेवा में राज्यों की यह सियासी तनातनी अत्यंत अफसोसनाक है तो दूसरी ओर एक इकाई के रूप में समाज का हर आदमी अपने अपने स्तर पर श्रमिकों और घर लौट रहे पीड़ितों की सहायता के लिए खुले दिल से सामने आया है. इंसानियत के ये सिपाही दलगत राजनीति से परे थे.

सैकड़ों स्वयंसेवी संगठन भी डॉक्टरों-नर्सों की तरह दिन-रात अपनी जान जोखिम में डालकर भूखे को रोटी और प्यासे को पानी देते रहे. न कोई मजहब आड़े आया, न कोई जाति और न कोई अगड़े-पिछड़े का भाव. यही इस देश के गुलदस्ते की खासियत है.

हर फूल अपनी अपनी खुशबू बिखेरता हुआ एक गुलदस्ते में दिखाई देता है. इस गुलदस्ते को बांट कर राजनीति करने वाले दलों पर यह एक तमाचा है. क्या हमारे राजनीतिक दल भारतीय समाज के इस अनूठे गुण से कुछ सीखेंगे ? 

Web Title: Rajesh Badal's blog: Political bets on the pain of migrant workers, inhumanity

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे