राजेश बादल का ब्लॉग: संसद चलाना पक्ष-विपक्ष दोनों का दायित्व

By राजेश बादल | Published: June 18, 2019 08:57 AM2019-06-18T08:57:12+5:302019-06-18T08:57:12+5:30

भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की दूसरी पारी का पहला सत्न सोमवार को प्रारंभ हो चुका है. अगले पांच साल के लिए इस विशाल और विराट देश को आगे ले जाने का मंत्न इस संसद के सत्न प्रदान करेंगे.

Rajesh Badal's blog: Parliament's running-side responsibility for both the Opposition | राजेश बादल का ब्लॉग: संसद चलाना पक्ष-विपक्ष दोनों का दायित्व

राजेश बादल का ब्लॉग: संसद चलाना पक्ष-विपक्ष दोनों का दायित्व

कुछ पल दिमाग के दृश्यपटल पर हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. पिछली बार प्रधानमंत्नी पद की शपथ लेने के बाद नरेंद्र मोदी जब संसद भवन पहली बार पहुंचे थे तो जिस तरह सीढ़ियों पर सिर रखकर लोकतंत्न के इस सर्वोच्च मंदिर के प्रति श्रद्धा प्रकट की थी, उससे हर भारतीय अभिभूत हो गया था.

अगर बहत्तर साल से हिंदुस्तान का गणतंत्न निरंतर मजबूत होता गया है तो उसका असल कारण संसदीय प्रणाली में हमारे राजनीतिक दलों की आस्था ही है. नहीं भूलना चाहिए कि जिन राष्ट्रों ने करीब-करीब भारत के साथ ही आजादी हासिल की थी अथवा अपने नवनिर्माण का सफर शुरू किया था, उनमें से अनेक ऐसे हैं, जो अभी तक लोक के हाथों में सत्ता-संचालन की कुंजी नहीं सौंप सके हैं. इसलिए भारत को अपने इस शिखर संस्थान की कार्यप्रणाली पर गर्व करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता गर्व के साथ-साथ कुछ चिंता की लकीरें भी हमारे इस परिपक्व हो रहे तंत्न के माथे पर साफ दिखाई दे रही हैं. हम इन लकीरों के समय के जल से धुलने का स्वाभाविक इंतजार नहीं कर सकते.

भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की दूसरी पारी का पहला सत्न सोमवार को प्रारंभ हो चुका है. अगले पांच साल के लिए इस विशाल और विराट देश को आगे ले जाने का मंत्न इस संसद के सत्न प्रदान करेंगे. जब दोनों सदन इस बात पर शास्त्नार्थ करेंगे तो यकीनन यह विश्लेषण भी जरूर होगा कि आखिर पिछले पांच साल के दौरान इस मंदिर में पुजारियों से पूजा-अर्चना में कहां चूक हुई है.

क्या निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सिर्फ एक रस्म अदायगी के तौर पर इस संस्था की परिक्रमा की है या फिर थोड़ा बहुत अपने भीतर इसे धड़कता हुआ महसूस भी किया है. देखा जाए तो इस नजरिये से बीते पांच बरस सौ फीसदी निदरेष नहीं रहे. कुछ कड़वे अध्याय लगातार संसद के कामकाज में जुड़े रहे. किसी ने याद करने की कोशिश नहीं की कि चौंसठ साल से वे एक बेहद गंभीर मसले पर माथापच्ची कर रहे हैं और कोई फैसला नहीं ले पाए हैं.

1955 में संसद की सामान्य कामकाज समिति ने यह सिफारिश की थी कि दोनों सदनों के कम-से-कम तीन सत्न हों और लोकसभा की 120 तथा राज्य सभा की 100 बैठकें होनी चाहिए. तीन सत्न तो किसी तरह खींचतान कर होते रहे लेकिन बैठकों की संख्या में गिरावट आती रही. आज 1955 की तुलना में चुनौतियां विकराल हैं, आबादी का कई गुना विस्फोट हुआ है और समस्याओं की जड़ तक जाकर उसका समाधान खोजने के लिए हमारे सांसद तैयार नहीं हैं.

आज तो सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश की संसद के लिए 200 बैठकें भी कम लगती हैं. पक्ष और प्रतिपक्ष के राजनीतिक पंडितों ने भी 1955 की रिपोर्ट से सहमति जताई थी. नतीजा यह कि पहली संसद में लोकसभा की 677 बैठकें हुईं. राज्यसभा ने 565 बैठकें कीं. इस दरम्यान लोकसभा में  3784 घंटे काम हुआ. पहले पांच वर्षो में हर साल 135 दिन औसत निकला. इंदिरा गांधी के समय 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ. नहीं भूलना चाहिए कि उस समय आबादी सिर्फ 41 करोड़ थी.

मौजूदा दौर तो शर्मनाक है. लोकतंत्न के इस मंदिर का जितना मखौल जनप्रतिनिधियों ने उड़ाया है, उसके लिए उन्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा. बीते दशक में तो संसद ने कम काम करने का रिकॉर्ड बनाया  है. पिछला बजट सत्न दस साल का सबसे खराब सत्न रहा. केवल 22 बैठकें हो सकीं. लोकसभा में सिर्फ पच्चीस और राज्यसभा में पैंतीस फीसदी काम हुआ. इससे पहले यानी 2017 में  57 और 2016 में मात्न 70 दिन काम हो पाया था. दरअसल नई सदी का आगाज ही ठीक नहीं रहा था.  लोकसभा 85 दिन ही चल पाई थी. इसके बाद सन 2006 में 77,  2007 में 66 और 2008 में भी सौ से कम दिन काम हुआ. इस साल तो केवल दो सत्न हो सके. 

पक्ष और प्रतिपक्ष को अच्छी और सार्थक बहसों के लिए अपने को प्रस्तुत करना भी एक बड़ी चुनौती है. सांसद देश के अंदरूनी और अंतर्राष्ट्रीय मसलों का गहराई से अध्ययन नहीं करते. जरूरी विषयों पर शोध और जमीनी पड़ताल उन्हें फिजूल का काम लगता है. बात-बात में अवरोध और नारेबाजी उन्हें भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन सच तो यह है कि सदन की कार्रवाई देखने वालों का वे जायका खराब करते हैं. अगर विपक्ष में बैठे सांसदों से मतदाता संसदीय परिपक्वता की उम्मीद करता है तो पक्ष या सरकार से भी उसकी आशाएं हैं. संवेदनशील मामलों या निर्णयों पर अध्यादेश ले आना अच्छी परंपरा की निशानी नहीं है. अध्यादेश की संवैधानिक मर्यादा बनी रहनी चाहिए.

एक हजार करोड़ सालाना खर्च करने वाली संसद की कार्यवाही में सांसदों की भूमिका से भारत का आम नागरिक क्षुब्ध है. अगर निर्वाचित प्रतिनिधियों ने संसद की उपेक्षा की तो वोटर भी उनकी उपेक्षा के लिए आजाद है. यह बात सत्नहवीं लोकसभा के सांसदों को हमेशा ध्यान में रखनी होगी. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी जब प्रतिपक्ष से रचनात्मक भूमिका निभाने की अपील करते हैं तो उनकी सदाशयता का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन पिछले पांच बरस का उनका कार्यकाल अभी भी संसद के प्रति अधिक जिम्मेदार और परिपक्व होने की मांग करता है.

Web Title: Rajesh Badal's blog: Parliament's running-side responsibility for both the Opposition

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