राजेश बादल का ब्लॉग: दलों के प्रवक्ता कार्य संस्कृति-शिष्टाचार भी सीखें

By राजेश जोशी | Published: April 25, 2019 02:13 PM2019-04-25T14:13:52+5:302019-04-25T14:13:52+5:30

कुछ साल से राजनीतिक दलों ने यह तय करना शुरू कर दिया है कि अमुक चैनल पर चर्चा में उसका अमुक नेता हिस्सा लेगा. अपनी ओर से आजादी चैनलों को न के बराबर होती है. चैनल के पत्नकारों को पता होता है कि उसे एलॉट किया गया नेता चर्चा के विषय की समझ नहीं रखता.

Rajesh Badal's blog: Learn about party's spokes work culture-courtesy | राजेश बादल का ब्लॉग: दलों के प्रवक्ता कार्य संस्कृति-शिष्टाचार भी सीखें

राजेश बादल का ब्लॉग: दलों के प्रवक्ता कार्य संस्कृति-शिष्टाचार भी सीखें

राजनीतिक दलों के प्रवक्ता यानी अपने दल की रीति-नीति पर बोलने के लिए अधिकृत राजनेता. मतलब तो यही है, लेकिन इन दिनों सत्नहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव के दौरान इन प्रवक्ताओं के ज्ञान और भाषा व्यवहार को देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे अपनी पार्टी और अन्य राजनीतिक विचारधाराओं के बारे में सामान्य समझ भी रखते हैं. इसी कारण टेलीविजन चैनल पर हों, प्रेस कांफ्रेंस में या रेडियो पर - चर्चा के दरम्यान और उनका परदे पर आचरण आजकल सवालों के घेरे में है. राजनीतिक दल भी उन्हें अपनी पार्टी का स्वर बनाने से पहले उनके बुनियादी ज्ञान, समझ व परिपक्वता की पड़ताल भी नहीं करते.

बीते दिनों एक चैनल पर दोनों शिखर पार्टियों के प्रवक्ता गाली गलौज पर उतर आए. एक ने दूसरे को लगातार मुल्क का गद्दार कहा तो दूसरा अपना संयम खो बैठा. उसने पानी का गिलास उठाकर दे मारा. भला हो एंकर का कि उसने ब्रेक लिया और बला टाली. इसी तरह एक अन्य चैनल पर तो मारपीट ही हो गई. तीसरे चैनल पर हाथापाई हो गई . ये केवल तीन घटनाएं नहीं हैं. कुछ वर्षो से यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है. हो सकता है कि किसी एक घटना में चैनल के एंकर या पत्नकार की कोई त्नुटि हो, मगर सारे चैनलों के पत्नकार तो एक जैसे नहीं हो सकते. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न में सरकार चला रहे दल और प्रतिपक्ष के दलों का यह रवैया गैरजिम्मेदाराना और निंदनीय है. इस पर रोक लगाने के लिए क्या करना चाहिए? 

दरअसल कुछ साल से राजनीतिक दलों ने यह तय करना शुरू कर दिया है कि अमुक चैनल पर चर्चा में उसका अमुक नेता हिस्सा लेगा. अपनी ओर से आजादी चैनलों को न के बराबर होती है. चैनल के पत्नकारों को पता होता है कि उसे एलॉट किया गया नेता चर्चा के विषय की समझ नहीं रखता. जब उससे गंभीर सवाल किए जाते हैं तो उसे उत्तर देना ही नहीं आता. जब उसे सही उत्तर देने के लिए कहा जाता है तो वह भड़कने लगता है. कल्पना करिए कि अगर सभी दलों के प्रवक्ता इसी श्रेणी के आ जाएं तो मल्ल युद्ध कौन टाल सकता है?

दूसरी बात, पार्टी में तीसरी या चौथी पंक्ति के ये प्रवक्ता जब आए दिन स्क्र ीन पर स्थान पाते हैं तो उन्हें अपने बारे में गलतफहमी भी हो जाती है कि वे अपनी पार्टी के चुनिंदा विद्वानों में से एक हैं. फिर अपने ज्ञान को किसी स्तर पर चुनौती दिया जाना वे पसंद नहीं करते. विडंबना तो यह है कि पार्टी भी उनके स्क्रीन पर लगातार प्रकट होने के कारण उन्हें लोकप्रिय मानकर चुनाव का टिकट भी दे देती है. राजनीतिक दल ऐसे प्रवक्ताओं के कारण अपने काबिल और निष्ठावान नेताओं की नाराजगी भी मोल ले लेते हैं. हर पार्टी में अलग-अलग क्षेत्न के विशेषज्ञ भी होते हैं लेकिन राजनीतिक दल उन्हें गंभीर विषयों पर नामांकित कम ही करते हैं. योग्य और अनुभवी नेताओं को अवसर नहीं मिलता. वे अपने सामने अपेक्षाकृत कमजोर छुटभैये का कद बड़ा होते देखते रहते हैं और उनका अपना कद बौना होता जाता है. भारतीय राजनीति में कई उदाहरण हैं, जब प्रतिभाशाली पेशेवर राजनेता की प्रतिभा को पार्टी ने नहीं भुनाया. बेचारा नेता दल की निष्ठा को सीने से चिपकाए इस लोक से विदा हो गया.

दुखद पक्ष तो यह है कि ये तथाकथित दलीय प्रवक्ता बड़ी जल्दी गुस्से में आ जाते हैं. जब उन्हें लगता है कि उनके पास सामने वाली पार्टी के प्रवक्ता का तर्क काटने के लिए कोई ठोस जवाबी तर्क नहीं है तो वे बिना रुके बोलते रहते हैं. इससे सामने वाली पार्टी के प्रवक्ता का स्वर दर्शक सुन ही नहीं पाते. कुल मिलाकर स्क्रीन एक ऐसे बेसुरे ऑर्केस्ट्रा में तब्दील हो जाता है जिसे दर्शक अपने हाथ में मौजूद छह इंच के हथियार से एक सेकंड के दसवें भाग में खारिज कर देता है. दो प्रवक्ता पाटों की चक्की के बीच चैनल पिस जाता है. राजनीतिक दल परदे पर शर्मनाक व्यवहार करने वाले अपने इन महान प्रतिनिधियों को दंडित भी नहीं करते. उनके आला नेता उल्टे इस बात से खुश होते हैं कि सामने वाली पार्टी के प्रवक्ता को उनके प्रतिनिधि ने अपने हंगामे से बोलने ही नहीं दिया. कभी-कभी तो यह लगता है कि जब किसी मसले पर एक दल के पास उत्तर देने के लिए कोई ठोस तर्क नहीं है तो वे बीच में ही असली मुद्दे का अपहरण कर लेते हैं और बीच के किसी आंकड़े से कोई नई कहानी गढ़ लेते हैं. इस ‘स्पिन’ कला से विषय ही बदल जाता है. 

राजनीतिक दलों के शिखर पुरुष एक और भयंकर अपराध के लिए भी जिम्मेदार हैं. पर वे इसे अपराध मानते ही नहीं. जुर्म यह है कि वे भारतीय राजनीतिक इतिहास को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. आजादी के आंदोलन की तस्वीर विकृत की जाती है. स्वतंत्न भारत के सफरनामे के अनेक पड़ाव को कलंकित करने का षड्यंत्न ये प्रवक्ता करते हैं और राजनीतिक नियंता मुस्कुराते हैं. कोई पार्टी परदे पर उनकी ओर से प्रकट होने वाले इन अवतारों को राजनीतिक नजरिए से प्रशिक्षित नहीं करती. यह कार्य राजनीतिक दलों को आजादी के बाद से या अपनी पार्टी के जन्म से ही करना चाहिए था लेकिन नहीं किया गया. अब भी  ध्यान न दिया गया तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी नौबत आएगी. हालांकि इससे उनका नुकसान कुछ नहीं होगा. चाकू तरबूजे पर गिरे या तरबूजा चाकू पर - आहत तो भारतीय लोकतंत्न ही होगा.

Web Title: Rajesh Badal's blog: Learn about party's spokes work culture-courtesy