राजेश बादल का ब्लॉग: यश के नुकीले शिखर पर भी खतरे कम नहीं हैं

By राजेश बादल | Published: June 4, 2019 05:29 AM2019-06-04T05:29:32+5:302019-06-04T05:29:32+5:30

दरअसल इस बार की चक्रवर्ती विजय में भारतीय जनता पार्टी की कोई सामूहिक समग्र और संपूर्ण भागीदारी नहीं दिखाई देती. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के नाम पर ही मतदाताओं ने अपना निर्णय सुनाया है.

Rajesh Badal's blog: indian politics non congress party history, BJP Narendra modi lok sabha election 2019 | राजेश बादल का ब्लॉग: यश के नुकीले शिखर पर भी खतरे कम नहीं हैं

राजेश बादल का ब्लॉग: यश के नुकीले शिखर पर भी खतरे कम नहीं हैं

इस हैरतअंगेज कामयाबी  के बारे में तो खुद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भी नहीं सोचा होगा. भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल ने लगातार दो बार स्पष्ट बहुमत हासिल करके यह संदेश दे दिया है कि भारतीय लोकतंत्न में प्रतिपक्ष भी स्थायी सरकार दे सकता है. कांग्रेस की झोली से यह जुमला हमेशा के लिए विलुप्त हो गया है कि विपक्ष को सरकार चलाना नहीं आता. 

इसका एक फायदा यह भी हुआ है कि मतदाता की दुविधा कम हो गई है. दो मजबूत राजनीतिक गठबंधनों में से किसी एक के चुनाव का विकल्प उसके सामने बना रहेगा. मुल्क की राजनीतिक सेहत के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है. हालांकि इस तरह की प्रत्येक चमत्कारिक जीत के पीछे कुछ चेतावनियां भी छिपी होती हैं. अगर उनकी उपेक्षा की जाती है या उन्हें अनदेखा किया जाता है तो परिणाम घातक भी हो सकते हैं. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के लिए दूसरा कार्यकाल इस मायने में एक तरह से अग्नि परीक्षा का है.

दरअसल इस बार की चक्रवर्ती विजय में भारतीय जनता पार्टी की कोई सामूहिक समग्र और संपूर्ण भागीदारी नहीं दिखाई देती. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के नाम पर ही मतदाताओं ने अपना निर्णय सुनाया है. समूचे अभियान में नरेंद्र मोदी यह अपील करते थे कि एक एक वोट उनके अपने खाते में जाएगा. यह अपील काम कर गई. इससे ऐसे अनेक उम्मीदवारों की किस्मत खुल गई, जो न तो जीत के काबिल थे और न अपने दम पर लोगों का भरोसा जीत सकते थे.

ऐसी कामयाबियों से दो आशंकाएं उपजती हैं. एक तो शिखर पुरुष के मन में यह धारणा बनती है कि सारे सांसद उसके कारण जीते हैं. पार्टी में तो कोई दम ही नहीं था इसलिए वो पार्टी से ऊपर है. यहां से सामूहिक भाव की बलि चढ़ जाती है और ‘मैं’ वाला भाव जन्म लेता है. यह भाव ही लोकतांत्रिक प्रणाली को नुकसान पहुंचाता है और एक अधिनायक पनपने लगता है. शिखर पुरुष खुद को ब्रांड मानने लगता है. मगर उसके खतरे भी हैं. जब कोई पार्टी सामूहिक नेतृत्व को दरकिनार कर किसी चेहरे को ब्रांड की तरह पेश करती है तो ब्रांड को गलतफहमी स्वाभाविक है. 

भारतीय संविधान और जनतंत्न अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली से अलग है, जहां लोग चेहरे का चुनाव करते हैं. भारत में निर्वाचित सांसद ही अपने नेता का चुनाव करते हैं. भले ही लोकप्रियता के आधार पर मतदाता यह समझ ले कि अमुक दल की सरकार आएगी तो प्रधानमंत्नी कौन बनेगा. दूसरी आशंका सांसदों के सुविधाभोगी हो जाने की है. उन्हें पता होता है कि वे अपने दम पर नहीं, बल्कि नेता के चेहरे के आधार पर चुन कर आए हैं. इसलिए सुविधाओं का लाभ उठाओ और नेता की जिंदाबाद करो. इसी से उनका राजनीतिक करियर बनेगा. वे अपने संसदीय क्षेत्न की नुमाइंदगी तो करते हैं लेकिन पांच साल संसद में चुप्पी साधे रहते हैं. वे इलाके की बुनियादी सुविधाओं और समस्याओं को नहीं उठाते. 

सांसद निधि खर्च हो जाती है, उसका सदुपयोग नहीं होता. पिछले पांच साल का रिकॉर्ड कहता है कि अधिकांश संसद सदस्य मौलिक और स्थायी बीमारी बन चुके अपने क्षेत्न के मसले सदन में नहीं रखते. कमोबेश यही हाल मंत्रियों का होता है. वे सार्वजनिक रूप से नेता की जिंदाबाद तो करते हैं मगर अपने मंत्नालय में बैठकर एक सौ तीस करोड़ की आबादी के लिए काम करने का समय उन्हें नहीं मिलता. वे नौकरशाही के भरोसे रहते हैं.

इस तरह की जीत का एक और पहलू है. मतदाताओं की समस्याओं का निराकरण सांसद नहीं करते तो जनता सीधे शिखर पुरुष से अपनी समस्याओं के समाधान की अपेक्षा करती है क्योंकि चुनाव में वोट इसी आधार पर दिया गया है. एक प्रधानमंत्नी के लिए एक एक निर्वाचन क्षेत्न के हर मुद्दे पर ध्यान देना कभी भी संभव नहीं होता. तो न सांसद से उम्मीदें पूरी होती हैं और न प्रधानमंत्नी से. लोगों का मोहभंग होता है. असल मुद्दों का समाधान नहीं होता और जब अगले चुनाव आते हैं तो जानबूझकर वे मुद्दे हाशिए पर डाल दिए जाते हैं. 

प्रचार अभियान में कोशिश होती है कि इनका कहीं कोई जिक्र  ही न हो. हम पाते हैं कि चुनाव अभियान के दरम्यान आसमान से नए मुद्दे टपकते हैं. वे भावनात्मक भी हो सकते हैं. मतदाता एक बार फिर भ्रम का शिकार हो जाता है. जीत कर आए नाकाबिल संसद सदस्यों को अगली बार टिकट ही नहीं मिलता और उनके स्थान पर जिंदाबाद करने वाला नया चेहरा नागरिकों के सामने होता है.

भारत में शासन कर चुके और कर रहे दोनों बड़े गठबंधनों को अब यह ध्यान रखना होगा कि तेजी से बदल रहे देश के मतदाता भी अपने आपको बदल रहे हैं. वे उन्नीस सौ साठ या सत्तर के मतदाता नहीं रहे हैं. पांच वर्ष बाद सरकार की अंकसूची में नंबर भरने का हक उनके पास है. यदि सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया तो उसे खारिज करने में उन्हें सिर्फ एक सेकंड लगेगा. सत्नहवीं लोकसभा के निर्वाचन का यही सारांश-संदेश है. 

Web Title: Rajesh Badal's blog: indian politics non congress party history, BJP Narendra modi lok sabha election 2019

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