राजेश बादल का ब्लॉग: टीआरपी के गोरखधंधे में छिपे अनेक खतरे
By राजेश बादल | Published: October 13, 2020 08:52 AM2020-10-13T08:52:12+5:302020-10-13T08:52:12+5:30
TRP Scam: टीवी कारोबार में परदे के पीछे क्या कुछ हो रहा है, इसकी सच्चाई सामने आ रही है. करोड़ों लोग हक्के-बक्के हैं. वे अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं.
भारतीय समाज इन दिनों परदे के पीछे की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू हो रहा है. टीवी कारोबार में बाजार और प्रबंधन का विकृत और स्याह रूप सामने आ रहा है. करोड़ों लोग हक्के-बक्के हैं. वे अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जिस आधार पर वे शिखर चैनलों की प्रावीण्य सूची बनाते थे और नई-नई जानकारी पाने के लिए मन बनाते थे, वह दरअसल कुछ था ही नहीं. मुनाफे के मकसद से रचा गया एक षड्यंत्र था.
वर्षो से हिंदुस्तान का जागरूक दर्शक इसका शिकार हो रहा था. महाराष्ट्र से इस खेल का भांडा फूटा. अब पता लग रहा है कि समूचे देश में यह नकली मायाजाल फैला हुआ है. देश के दर्शकों के लिए यह जागने और सबक लेने का अवसर है. टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स यानी टीआरपी की होड़ में अव्वल आने के लिए अपनी क्वालिटी के आधार पर कोई चैनल विजेता बने तो बात समझ में आती है, लेकिन शीर्ष पर आने और बने रहने के लिए कायदे-कानून ही ताक में रख दिए जाएं, इसे कौन उचित मान सकता है?
भारत में 20 करोड़ लोगों के घरों में टीवी
इस मसले की पड़ताल करने से पहले कुछ बुनियादी जानकारियां आवश्यक हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के करीब बीस करोड़ परिवारों में यह बुद्धू-बक्सा पहुंच चुका है. इसका अर्थ लगभग पैंसठ-सत्तर फीसदी आबादी टीवी देखती है. अनुमान है कि हर साल पचास लाख टीवी सेट दुकानों से घर का सफर तय करते हैं. मुल्क में टीवी उद्योग का व्यापार कोई 40000 करोड़ रुपए साल का है.
मान सकते हैं कि भारत का टीवी उद्योग शताब्दी की शुरुआत में ही पनपने लगा था. उस समय टैम यानी टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट कंपनी साप्ताहिक आंकड़े देती थी. यह अमेरिकी कंपनी है. इसने लगभग चार हजार घरों में टीवी सेट में अपने मीटर लगाए थे. उस समय भी भारत के करोड़ों परिवार टीवी देखने लगे थे. दस साल पहले बार्क यानी ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल अस्तित्व में आई.
पहले भी धांधली की बातें आती रही हैं सामने
आज इसी के आंकड़े भरोसेमंद माने जाते रहे हैं. इसने लगभग आठ हजार टीवी सेट्स में अपने मीटर लगाए हैं. कंपनी प्रति सप्ताह गुरुवार को अपने आंकड़े जारी करती है और बुधवार की रात वर्षो तक टीवी प्रोफेशनल्स के लिए जागते-जागते ही कटती थी.
याद कर सकता हूं कि जब भारत का चैनल उद्योग पनप रहा था तो केबल संचालकों को चैनल के मार्केटिंग कार्यकर्ता अपने डब्बे दिया करते थे. साथ में बेहतर स्थान देने के एवज में महंगे उपहार भी उन्हें भेंट किए जाते थे.
कोई ऑपरेटर तो ऐसा भी होता था जो उपहार न लेकर हर साल कैश की मांग करता था. चैनल उन्हें नकद भी देता था. समय-समय पर उन्हें पांच सितारा होटलों में दावत दी जाती थी. उनमें महंगी और उम्दा शराब परोसी जाती थी. यह पंद्रह-बीस बरस पहले की बात है. अर्थात मुनाफे के लिए बेईमानी के बीज चैनल उद्योग की स्थापना के साथ ही पड़ गए थे.
रेटिंग प्रणाली हमेशा संदेह के घेरे में
इसके बाद मुंबई के जिन घरों में यह मीटर लगाए गए थे, उनकी सूची प्रकाशित हो गई. कायदे से यह बेहद गोपनीय जानकारी होती है. इस खुलासे ने पहली बार इस रेटिंग प्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए थे. एक निजी चैनल समूह ने अमेरिकी अदालत का दरवाजा खटखटाया तो प्रसार भारती ने टीआरपी के आंकड़ों पर कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी दे डाली. इसके बाद से लगातार यह रेटिंग प्रणाली संदेह के घेरे में बनी रही.
चूंकि इन साप्ताहिक आंकड़ों के आधार पर विज्ञापनदाता कंपनियां चैनलों का चुनाव करती हैं, इसलिए ये मीटर जो सूचनाएं उगलते हैं, वे करोड़ों की कमाई का जरिया बन जाती हैं. इसी को पाने के लिए अनुचित हथकंडों का सहारा लिया जाता है. कुल पैंतीस चालीस हजार लोग अगर अस्सी करोड़ लोगों की राय बन जाएं तो इसे कौन सही ठहराएगा? बाजार में इस गलाकाट स्पर्धा के कारण सारे नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं. यह स्थिति बाजार के लिए घातक है और उपभोक्ता के लिए भी.
विडंबना यह है कि कमाई के लिए ये तरीके गांव का कोई अनपढ़ दुकानदार अपनाए तो बात समझ में आती है, पर बौद्धिक व्यापार इसका शिकार हो जाए - यह दुर्भाग्यपूर्ण है. बुद्धिजीवी विचलित हैं. सोच के किसी बिंदु पर वे अगर दुविधा महसूस करते थे तो टीआरपी के पैमाने पर सबसे लोकप्रिय चैनल को देखते थे. वे सोचते थे कि चैनल जो दिखा रहा है, वही सत्य है क्योंकि अधिकतर लोग इसी चैनल को देखते हैं.
टीआरपी घोटाला हिंदुस्तानी मीडिया का शर्मनाक अध्याय
अब उन्हें लग रहा है कि वे अनजाने में ही अपनी राय बना बैठे हैं. जो सच नहीं है, उस जानकारी का वे अपने बौद्धिक विमर्शो में उपयोग कर चुके हैं. यानी चैनल ने राजनीतिक अथवा सामाजिक मुद्दों पर अपनी बात बड़ी सफाई से उनके दिमागों में दाखिल कर दी है. उस तथाकथित जानकारी का दर्शक अपने संपर्क संसार में विस्तार कर चुके हैं. उनकी उलझन यह है कि इस वैचारिक धोखाधड़ी का मामला किस अदालत में ले जाएं.
टीआरपी हासिल करने के लिए किया गया घोटाला हिंदुस्तानी मीडिया का शर्मनाक अध्याय है. बाजार की घुसपैठ ने हमारे दिमाग संक्रमित कर दिए हैं. नहीं भूलना चाहिए कि आबादी का बड़ा वर्ग आज भी निजी मौलिक राजनीतिक सोच नहीं रखता. उसे जिस तरफ हांक दिया जाता है, वह चल पड़ता है.
टीआरपी मंडी के सौदागर यदि दर्शक की आंखों पर अपना चश्मा लगाएंगे तो इससे बड़ी धोखाधड़ी और क्या हो सकती है. देह की हत्या के लिए तो कानून में फांसी का प्रावधान है, मगर दिमागी सोच की हत्या तो उससे भी खतरनाक है. अफसोस! इसके मुजरिमों को दंड देने के लिए हमने कुछ नहीं किया है.