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राजेश बादल का ब्लॉग: मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने की परंपरा ठीक नहीं

By राजेश बादल | Updated: February 8, 2022 08:01 IST

आज के दौर में सभी राजनीतिक पार्टियां ये मानने लगी हैं कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से लाभ मिलता है. लेकिन यह सच नहीं है. पार्टी के भीतर चेहरे के विरोधी ही पार्टी के खिलाफ काम करने लगते हैं.

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पंजाब के विधानसभा चुनाव में आखिरकार कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर ही दिया. वह ऐसा नहीं करती तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ही पार्टी की लुटिया डुबोने में लगे थे. वे कह चुके थे कि आलाकमान कठपुतली मुख्यमंत्री चाहता है. इस बयान के बाद किस पार्टी का नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा स्वीकार करता. 

इसीलिए उन्हें बेमन से चन्नी को इस प्रादेशिक शिखर पद का चेहरा बनाए जाने का फैसला स्वीकार करना पड़ा. लेकिन, वे नहीं भी मानते तो क्या होता? अपना और कांग्रेस का, दोनों का नुकसान करते. अपने बड़बोलेपन और अपरिपक्व राजनीतिक बयानों की वजह से वे अपना वैचारिक खोखलापन पहले ही उजागर कर चुके हैं.

सवाल यह है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को क्या चुनाव से पहले प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का ऐलान करना चाहिए? उत्तर है कि बिल्कुल नहीं. ऐसा करना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है. दरअसल भारतीय संविधान के रचे जाने के समय इसके निर्माता कदम-कदम पर इतनी सावधानी रखते रहे कि देश में तानाशाही नहीं पनप पाए. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चुनाव सांसदों तथा विधायकों पर छोड़ने की व्यवस्था इस कारण सबसे उत्तम है. 

भारतीय संविधान को लोकतांत्रिक नजरिये से यूं ही विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान नहीं माना गया. कांग्रेस ने इस परंपरा का दशकों तक निर्वाह किया. इक्का-दुक्का उदाहरण ही हैं, जब मतदाताओं को मुख्यमंत्री का नाम मताधिकार के प्रयोग के समय पता होता था. अधिकतर तो पार्टी की विजय के बाद विधायक दल की बैठक में चुने जाते थे. मतदाताओं को वोट डालने के समय मुख्यमंत्री का नाम पता होने का कारण यह भी था कि उस दौर में राजनेताओं का कद बड़ा होता था. वे लोगों के मन में सहज स्वीकार्य नेता होते थे. 

पंडित गोविंद बल्लभ पंत, द्वारिका प्रसाद मिश्र, रविशंकर शुक्ल, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, बीजू पटनायक, नंदिनी सत्पथी, प्रताप सिंह कैरों और हरिदेव जोशी ऐसे ही कुछ नाम हैं.    

मैंने अपनी पत्रकारिता के दौरान यह भी देखा है कि अनेक वर्षो तक विधायक दल ही नेता चुनता था. बाद में केंद्रीय पर्यवेक्षकों के जरिये नाम भेजने की प्रथा प्रारंभ हुई, जो यकीनन नैतिक और उचित नहीं थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सियासत धंधा बन गई. सत्ता की मलाई का स्वाद चखने के लिए महत्वाकांक्षा जोर मारने लगी. कमोबेश इसी दौर में चुनाव के दरम्यान धनबल का प्रभाव बढ़ा. प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार हो तो चुनाव खर्च का जिम्मा भी निर्वाचित सरकारों पर आ पड़ा. 

मुख्यमंत्री को नियमित रूप से पार्टी फंड मजबूत करने का दायित्व संभालना होता था. इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला और पैसे कमाकर देने वाला मुख्यमंत्री आलाकमान का चहेता बन गया. बहुमत वाला मुख्यमंत्री नहीं होने के कारण उस राजनेता के लिए केंद्र की कठपुतली बनकर काम करना अनिवार्य हो गया. प्रदेश का विकास हाशिये पर चला गया. मुख्यमंत्रियों और उनके समर्थक मंत्रियों के लिए अपनी जेब का विकास सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई. मध्यप्रदेश में बहुमत वाले शिव भानु सोलंकी और सुभाष यादव मुख्यमंत्री नहीं बन सके और केंद्र के इशारे पर अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, राजस्थान में शिव चरण माथुर, छत्तीसगढ़ में अजित जोगी, उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, कश्मीर में गुलाम नबी आजाद, महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण और बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय जैसे राजनेता अल्पमत में होते हुए मुख्यमंत्री बनते रहे. अलबत्ता बाद में उन्होंने अपने गुट का विस्तार कर लिया. मगर पार्टी शनै: शनै: कमजोर होती गई.

केंद्र से चेहरा थोपने की बीमारी से अन्य दल भी नहीं बच सके हैं. विश्व की सबसे बड़ी भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में रघुबर दास, उत्तर प्रदेश में योगी, उत्तराखंड में भुवन चंद्र खंडूरी, रमेश पोखरियाल , तीरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी, गुजरात में आनंदी बेन, भूपेंद्र पटेल और विजय रुपानी, कर्नाटक में बासवराज बोम्मई भी केंद्र की इच्छा पर मुख्यमंत्री बनाए गए. 

दिलचस्प यह भी है कि केंद्रीय पसंद का मुख्यमंत्री अगले विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए ही मुश्किल बन जाता है. जैसे-तैसे पार्टी जीत पाती है. विपक्षी दलों में केवल ओडिशा अपवाद है. वहां मुख्यमंत्री ही पार्टी सुप्रीमो हैं. इसलिए मतदाताओं में संशय नहीं होता. यही हाल तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का है.  

विडंबना है कि सभी राजनीतिक पार्टियां मानने लगी हैं कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से लाभ मिलता है. लेकिन यह सच नहीं है. पार्टी के भीतर चेहरे के विरोधी ही पार्टी के खिलाफ काम करने लगते हैं. वह चेहरा जीत के लिए केंद्रीय चेहरे को इस्तेमाल करता है. जैसे भाजपा के अधिकांश मुख्यमंत्री इन दिनों प्रधानमंत्री के चेहरे को सामने रखते हैं. ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व के सामने प्रादेशिक चेहरे की नाकामियां उजागर नहीं होतीं और पार्टी मुश्किल में पड़ जाती है. जैसे इन दिनों उत्तर प्रदेश चुनाव में योगी सरकार की असफलताओं का ठीकरा भी केंद्र के सिर फूट रहा है.

इसके अलावा चुनाव से पहले चेहरा घोषित करना अधिनायकवाद को मजबूत करना है. यह भारतीय लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल है. सैकड़ों साल तक सामंती हुकूमतों या राजा-महाराजाओं और बादशाहों के कारण इस सोच के बीज भारत की जमीन में हैं. मुश्किल से वे लंबे स्वाधीनता संघर्ष के बाद भारतीय संविधान के बक्से में बंद हुए हैं. अगर बोतल में बंद यह जिन्न निकलकर नेताओं के दिमाग में गहरे पैठ गया तो दोबारा स्वतंत्रता संग्राम छेड़ना आसान नहीं होगा क्योंकि यह तो हमारे अपने लोगों से ही होगा और परिणाम अत्यंत घातक होंगे.

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