राजेश बादल का ब्लॉग: भारत पर पश्चिमी देशों का दबाव डालना उचित नहीं
By राजेश बादल | Published: April 19, 2022 10:30 AM2022-04-19T10:30:05+5:302022-04-19T10:32:26+5:30
रूस-यूक्रेन जंग के बीच भारत की विदेश नीति अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों को रास नहीं आ रही है. भारत पर लगातार दबाव बनाने की कोशिश हो रही है कि वह अमरिकी मत के साथ खड़ा नजर आए.
रूस और यूक्रेन के बीच जंग ने भारत पर दबाव बढ़ा दिया है. पश्चिमी देशों को भारतीय विदेश नीति भा नहीं रही है. वे आशा कर रहे थे कि तनाव भरे वैश्विक वातावरण में हिंदुस्तान यूक्रेन के पक्ष में उनके साथ आएगा और रूस की सख्त घेराबंदी की जा सकेगी. उनके अपने कूटनीतिक और कारोबारी हितों को देखते हुए यह उम्मीद अप्रत्याशित नहीं थी. इन दिनों बड़ी संख्या में राष्ट्र यूक्रेन के साथ सहानुभूति दिखाते नजर आ रहे हैं.
इन देशों की अवाम भी इस युद्ध में नैतिक रूप से यूक्रेन के साथ खड़ी दिखाई देती है. भारत में भी एक वर्ग यूक्रेन के समर्थन में है. इसके बाद भी भारत और उसका शत्रु देश चीन रूस के साथ मजबूती से खड़े हैं तो यह यूरोप और पश्चिम के लिए पहेली क्यों होनी चाहिए?
चीन और रूस की स्थिति सबको पता है. वे कभी भी अमेरिकी खेमे में शामिल नहीं होंगे. इसलिए अमेरिका और उनके सहयोगी कोशिश करते हैं कि भारत इन देशों के संग खड़ा नहीं हो और एशिया में एक मजबूत त्रिकोण उनके खिलाफ नहीं उभर पाए. हालिया दौर में भारत के रवैये को देखते हुए वे चाहते हैं कि तटस्थता के तराजू का पलड़ा तनिक उनकी ओर झुक जाए. अपनी इस नीति के चलते कुछ समय से विदेशी राष्ट्राध्यक्षों या उनके प्रतिनिधियों की लगातार भारत यात्राएं हो रही हैं.
अमेरिका के सबसे भरोसेमंद सहयोगी और भारत पर सदियों तक शासन कर चुके ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन दो दिन बाद हिंदुस्तान आ रहे हैं. उजागर तौर पर भले ही वे कारोबारी और रक्षा समझौते करते दिखाई दें, लेकिन उनका असल मकसद अमेरिका के पक्ष में भारत को ले जाने के लिए तैयार करना ही है. वे अपने ताजा बयान में कह चुके हैं कि भारत और ब्रिटेन लोकतांत्रिक तथा दोस्त देश हैं. (याद रखना चाहिए कि दोस्ती की दुहाई देने वाले ब्रिटेन ने आज तक भारत से जलियांवाला बाग में नरसंहार के लिए माफी तक नहीं मांगी है.)
गोरे प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि आज समूचे संसार को अधिनायकवादी ताकतों से खतरा पैदा हो गया है. जाहिर है कि उनका इशारा रूस और चीन की तरफ था. उनकी यात्रा से पहले ब्रिटेन की विदेश मंत्री लिज ट्रस भारत आई थीं. उन्होंने भी चाहा था कि हिंदुस्तान रूस पर बंदिशें थोपे और उनकी जमात में साथ खड़ा हो जाए. लिज ट्रस की यात्रा से पहले अमेरिका के उप सुरक्षा सलाहकार और भारतीय मूल के दलीप सिंह आए थे. मगर वे हिंदुस्तान को अमेरिकी घुड़की और धमकी देकर चले गए थे. उन्होंने खुल्लमखुल्ला कहा था कि जब चीन की फौज भारत पर चढ़ाई करेगी तो रूस भारत को बचाने नहीं आएगा (1971 की जंग में कौन सा अमेरिका आ गया था. तब भी रूस ने ही साथ दिया था.)
भारत में दलीप सिंह के बयान से रोष भड़क गया था. भारतीय विदेश मंत्रालय को अमेरिका से कड़ा प्रतिवाद करना पड़ा और व्हाइट हाउस ने मासूम सा तर्क दिया कि दलीप सिंह ने कोई चेतावनी या धमकी नहीं दी थी. उनका रवैया तो सकारात्मक था. भारत कैसे भूल सकता था कि गलवान घाटी में जब चीन की सेना से भारत का संघर्ष हुआ तो अमेरिका ने भारत के हक में तीन दिन तक मुंह तक नहीं खोला था. उसके बाद उसका अजीब सा शर्मीला बयान आया था, जिसका कोई मतलब नहीं था.
अमेरिका का अतीत आज भी भारत के मन में कड़वाहट भर देता है कि वह किस तरह हमेशा पाकिस्तान का साथ देता रहा है. चार-पांच दिन पहले विदेश मंत्री जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने अमेरिकी समकक्षों को एक पत्रकार वार्ता में आईना दिखा दिया था. जयशंकर ने कहा कि पश्चिम और यूरोप भारत को रूस से तेल नहीं खरीदने की बात कहते हैं, लेकिन वे खुद हिंदुस्तान से अधिक तेल खरीद रहे हैं.
इसी पत्रकार वार्ता में तब अमेरिकी खेमे ने पैंतरा बदला और कहा कि भारत में मानव अधिकारों के उल्लंघन पर उसकी नजर है. भारत ने उस समय तो नहीं, लेकिन बाद में इस आरोप का करारा उत्तर दिया. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिका को खरी-खरी सुनाई कि अमेरिका में अश्वेतों के साथ रंगभेद और वहां हो रहे मानव अधिकारों के उल्लंघन पर भी भारत की नजर है.
विडंबना है कि विकसित देश खुद तो दोहरा मापदंड अपनाते हैं और भारत जैसे विकासशील देश से अपेक्षा करते हैं कि उनके हित साधने में वह अपने हित की बलि चढ़ाकर सहायता करे. वे यूक्रेन को नैतिक समर्थन देते हैं, लेकिन अपना एक भी सैनिक रूस के विरुद्ध लड़ने के लिए मोर्चे पर नहीं भेजते. यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की सोमवार को पश्चिमी देशों के दोहरे रवैये पर इस कारण ही भड़क गए. उन्होंने कहा कि जितनी देर आप हथियार तथा अन्य फौजी मदद में करेंगे, यूक्रेन उतनी ही तेजी से विनाश की ओर बढ़ेगा. इस जंग का भविष्य अब पश्चिमी देशों पर निर्भर करता है. जब इस तरह का व्यवहार पश्चिम के राष्ट्र ही कर रहे हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वे यूक्रेन के कितने बड़े शुभचिंतक हैं.
अमेरिका के दबाव में भारत ईरान से तेल खरीदना करीब-करीब बंद करके उसके साथ संबंध खराब कर चुका है. लेकिन हिंदुस्तान के बारे में पश्चिम अभी भी सत्तर- अस्सी साल पुरानी धारणा बनाए हुए है.
अमेरिका और ब्रिटेन को याद होना चाहिए कि उन्होंने सुरक्षा परिषद में भारत को वीटो अधिकार का कभी समर्थन नहीं किया. दूसरी ओर रूस इस मामले में हरदम भारत के पक्ष में रहा है. आज के विश्व में इन दिनों लोकतंत्र के मायने भी बदल रहे हैं. अब लोकतंत्र के खोल में तानाशाही के बीज पनपने लगे हैं. इसलिए लोकतंत्र की दुहाई देकर किसी मुल्क को अपने राष्ट्रीय हितों से समझौते के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.