राजेश बादल का ब्लॉग: परदेसी विचारों को अन्यथा लेना ठीक नहीं

By राजेश बादल | Published: December 8, 2020 10:19 AM2020-12-08T10:19:52+5:302020-12-08T10:37:27+5:30

मौजूदा किसान आंदोलन का आगाज पंजाब से हुआ है और पंजाब का एक गहरा रिश्ता कनाडा से जुड़ा है. ऐसे में वहां के प्रधानमंत्री के बयान को खालिस्तान आंदोलन से जोड़ना क्या सही है?

Rajesh Badal blog: Farmers Protest and India reaction after other coutries comment on it | राजेश बादल का ब्लॉग: परदेसी विचारों को अन्यथा लेना ठीक नहीं

किसान आंदोलन: एक गैरकांग्रेसी सरकार के लिए यह इतिहास रचने का अवसर

Highlightsपरदेस से सरकार की नीतियों को लेकर आने वाले मूल्यांकन पर हमेशा नाराजगी ठीक नहीं हैखालिस्तान आंदोलन को विदेशी मदद मिलती है मगर किसान आंदोलन के सिर पर उसका ठीकरा फोड़ना जायज नहींकिसान अगर आंदोलन में हारते हैं और सरकार जीतती है तो उसकी इस जीत में भी हार है

हिंदुस्तान के किसान आंदोलन को मिल रही परदेसी सहानुभूति से समाज का एक वर्ग असहज महसूस कर रहा है. वह आंदोलन की तमाम कड़ियों को जोड़कर अपने मौलिक निष्कर्ष निकाल रहा है. 

मौजूदा किसान आंदोलन का आगाज पंजाब से हुआ. बड़ी संख्या में पंजाब से लोग जाकर कनाडा में बसे हैं. कनाडा और पंजाब का रिश्ता दशकों से बंधुत्व भाव का है. ठीक उसी तरह जैसा गुजरात के लोगों ने अमेरिका में अपने कारोबार का विस्तार किया है. यह कोई छिपा तथ्य नहीं है. 

कनाडा की राजनीति में सिखों ने खास पहचान बनाई है. वहां की संसद में उनकी नुमाइंदगी अच्छी मानी जा सकती है. जब कनाडा में यही भारतीय मूल के लोग मंत्री बनते हैं, वहां की सरकार में शामिल होते हैं तो हम गर्व से भर जाते हैं. जब वे कनाडा से स्वदेश धन भेजते हैं तो हमें अच्छा लगता है लेकिन जब वे भारत सरकार से अपने निर्णय पर पुनर्विचार की मांग करते हैं तो भारत में एक वर्ग उन्हें खालिस्तान आंदोलन से जोड़ता है तो दूसरा आतंकियों से रिश्ता बताता है. 

तब यह गर्वबोध अचानक खो जाता है. इसी तरह संयुक्त राष्ट्र भी जब किसानों के साथ झुकता नजर आता है और ब्रिटिश संसद के छत्तीस सदस्य भी इस मसले पर चिंता का इजहार करते हैं तो भारत में कुछ लोगों को लगता है कि अमेरिका या लंदन में बैठकर बाहरी लोग भारत के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहे हैं. 

विदेश में भारतीयों के सफलता पर गर्व क्यों कहते हैं फिर?

क्या यह सच नहीं है कि भारतीय मूल के लोग जब ब्रिटेन की संसद के लिए चुने जाते हैं तो हिंदुस्तानी गौरव महसूस करते हैं. भारत में तब भी खुशियां मनाई जाती हैं, जब कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित होती हैं, प्रमिला जयपाल और राजा कृष्णमूर्ति चुनाव में विजय हासिल करते हैं या निक्की हेली वहां अपना जबरदस्त प्रदर्शन करती हैं. 

हमें इससे मतलब नहीं होता कि वे ट्रम्प की टीम में शामिल हैं अथवा जो बाइडेन के साथ हैं. हम केवल उनका भारत से रिश्ता देखते हैं. विडंबना यह है कि जब हमारे यही गौरव प्रतीक अपने देश के मसलों पर भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं तो हम आंखें तरेरने लगते हैं. यक-ब-यक वे हमें विदेशी दिखाई देने लगते हैं. 

यह कैसे हो सकता है कि परदेस में बसे हिंदुस्तानी अपने वतन पैसा भेजें, मुल्क की शान बढ़ाएं तो अच्छा लगे और जब वे सरकार की नीतियों का मूल्यांकन करें तो वे देश के विरोधी या खलनायक मान लिए जाएं. यह दोहरी मानसिकता किस काम की? 

आज के विश्व में हम अपने मुल्क के लोगों से ऐसा व्यवहार तो नहीं कर सकते. मैं इस तथ्य से इनकार नहीं करता कि खालिस्तान आंदोलन को विदेशी मदद मिलती रही है मगर किसान आंदोलन के सिर पर उसका ठीकरा फोड़ना भी जायज नहीं है.

भारत सरकार ने कनाडाई प्रधानमंत्री के बयान पर विरोध दर्ज कराया है. कनाडा से हमारे संबंध अच्छे हैं. इन्हीं रिश्तों का नतीजा है कि कनाडा ने हिंदुस्तान का सम्मान बढ़ाने का वह काम किया है, जो अरसे तक भारत को गुलामी की जंजीरों से जकड़ कर रखने वाले अंग्रेज भी नहीं कर पाए. मैं उस प्रसंग को यहां याद करना चाहूंगा. 

सौ बरस पहले कामागाटामारू जहाज पर सवार भारत के स्वतंत्रता सेनानियों, प्रवासियों, बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गो के साथ कनाडा के तट पर भारी अत्याचार किए गए. जब वे बिलखते भारतीय कोलकाता के तट पर पहुंचे तो गोरी फौज ने उन्हें गोलियों का निशाना बना दिया. किसी तरह बच निकलने में कामयाब रहे लोगों से संसार को इस घटना की खबर मिली. तब से वहां रह रहे भारतीयों ने कनाडा की सरकार पर उस जल्लादी व्यवहार पर माफी मांगने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा. 

आखिरकार छह साल पहले कनाडा की संसद और प्रधानमंत्री ने भारत से माफी मांगी. दुनिया में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, जब किसी देश ने सौ बरस बाद जुल्मों के लिए इस तरह क्षमा याचना की हो. जब कनाडा का माफीनामा हमें अच्छा लग सकता है तो किसान आंदोलन पर उसके परामर्श की निंदा क्यों होनी चाहिए. जो राष्ट्र भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रति इतना संवेदनशील हो, उसे इस तरह की चेतावनी कम से कम मेरी नजर में तो उचित नहीं है.

जनआंदोलनों का सम्मान देने का समय है ये

भारत का किसान आंदोलन किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ है. पिछली सरकारों ने भी अनेक अवसरों पर जनआंदोलनों का सम्मान किया है. यह देश को बताने की आवश्यकता नहीं है कि लोकतंत्र में नागरिक सरकार को अपने हित में कानून बनाने के लिए चुनते हैं न कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए. 

जब कोई निर्वाचित हुकूमत अपने को मतदाता से ऊपर समझने लगती है, तो वह अपने घमंड को दर्शाती है, सेवाभाव को नहीं. किसान आंदोलन अनंत काल तक नहीं चलेगा. एक न एक दिन इसे समाप्त होना ही है. अगर मुल्क के मतदाता इसमें जीतते हैं तो इसमें उनकी ही नहीं सरकार की भी विजय है. 

आजादी के बाद पहली बार अन्नदाता अपने लिए इस तरह कुछ मांग रहा है. एक गैरकांग्रेसी सरकार के लिए यह इतिहास रचने का अवसर है. इसे गंवाना उचित नहीं होगा. दूसरी ओर यदि किसान आंदोलन में हारते हैं और सरकार जीतती है तो उसकी इस जीत में भी हार है. इसलिए सरकार के पास दो स्थितियां हैं. 

किसानों से हारकर भी उसके सामने जीत का मौका है और किसानों से जीत में तो उसकी पराजय की इबारत लिखी ही है. अब उसे तय करना है कि नौ दिसंबर को वह क्या करे.

Web Title: Rajesh Badal blog: Farmers Protest and India reaction after other coutries comment on it

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