राजेश बादल का ब्लॉग: मंद हुई ध्रुपद की तान, यह कमी कभी पूरी न हो सकेगी
By राजेश बादल | Published: November 10, 2019 09:38 AM2019-11-10T09:38:50+5:302019-11-10T09:38:50+5:30
रमाकांत गुंदेचा चल दिए अपने सफर पर. कल सुबह साहित्य - कला उत्सव विश्व रंग के एक सत्र में थे. परसों शाम भाई उमाकांत के साथ ध्रुपद गायन किया. रात बिलासपुर के हमारे साझा मित्र सतीश जायसवाल के साथ रात का भोजन किया. एकदम स्वस्थ. और इस तरह चल दिए मानो परलोक का टिकट कटाए तैयार बैठे थे.
रात को ट्रेन में था. मेरे गले में पहचान पत्र लटका हुआ था. टिकट कंडक्टर को दिखाने के बाद भी वह लटका रहा. सामने आंध्र प्रदेश की एक आला अफसर बैठी थीं. उन्होंने पूछा, ‘आप हमेशा पहचान पत्र लटकाए रहते हैं क्या?’ वह अंदाज मुझे कुछ ठीक नहीं लगा. मैंने कहा, ‘मैडम, कौन जाने कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए. मैं लगातार सफर करता हूं. कभी ऐसा हो जाए तो मेरे पहचान पत्र से पता तो लग जाएगा. मुझे मेरे घर पहुंचाने में मदद मिल जाएगी.’
मैंने यह बोला ही था कि फोन पर पहला संदेश मिला. ‘रमाकांत चले गए.’ पुणो जाने के लिए स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में थे. अचानक दिल का दौरा पड़ा. रमाकांत गुंदेचा चल दिए अपने सफर पर. कल सुबह साहित्य - कला उत्सव विश्व रंग के एक सत्र में थे. परसों शाम भाई उमाकांत के साथ ध्रुपद गायन किया. रात बिलासपुर के हमारे साझा मित्र सतीश जायसवाल के साथ रात का भोजन किया. एकदम स्वस्थ. और इस तरह चल दिए मानो परलोक का टिकट कटाए तैयार बैठे थे.
अरे! ऐसे कोई जाता है भैया. मुझसे तो चार साल छोटे थे. कतार तोड़ कर चल दिए रमाकांत. अच्छा नहीं किया तुमने.
ट्रेन में यादों की फिल्म चलने लगी थी.
वह शायद 1993 की सर्दियों की एक सुबह थी. छब्बीस बरस पहले का एक-एक पल याद है. अपनी कैमरा यूनिट के साथ भोपाल की प्रोफेसर कॉलोनी में गुंदेचा बंधुओं के घर गया था. ध्रुपद पर एक खास टीवी प्रोग्राम तैयार करना था.
रमाकांतजी ने दरवाजे पर शांत, पवित्र और निश्छल मुस्कान के साथ स्वागत किया था. हमने कोई चार-पांच घंटे शूटिंग की थी. दोनों भाइयों के बीच रिश्तों का रसायन गजब का था. संगीत और अन्य विषयों पर ढेर सारी चर्चा. साथ में मालवी पोहे और चाय ने आनंद दोगुना कर दिया था. हमने मालवा से जुड़ी यादें देर तक साझा कीं. वह हमारी पहली मुलाकात थी. गुंदेचा बंधुओं ने अपनी विनम्रता और सुसंस्कृत व्यवहार से दिल जीत लिया था. वह दोनों भाइयों के उड़ान भरने के दिन थे.
समय गुजरता रहा. मैं टेलीविजन की दुनिया में व्यस्त होता गया और दोनों भाई ध्रुपद को आसमानी बुलंदियों तक ले गए. उत्तराधिकार कार्यक्रम की प्रस्तुति से शुरू हुआ यह सफर ध्रुपद अकादमी के जरिए संसार भर में शिष्यों तक जा पहुंचा. डागर बंधुओं से सीखे इस हुनर की खुशबू से दोनों भाइयों ने सारे गुलशन को महका दिया. ध्रुपद में उनके लोक और निर्गुणी प्रयोग बेमिसाल हैं.
कितने लोग जानते हैं कि इन भाइयों ने पाकिस्तान में ध्रुपद का पौधा रोपा था. कई बरस पहले पाकिस्तान की एक निम्न मध्यम वर्ग की लड़की आलिया रशीद उनके पास पहुंची. उनसे ध्रुपद सिखाने का आग्रह किया. रमाकांत और उमाकांत चौंक गए. ध्रुपद और शिव की आराधना अलग कैसे कर सकते हैं. लेकिन उस लड़की ने ठान लिया था. भाइयों को झुकना पड़ा. बेटी की तरह अपने घर में चार साल रखा और ध्रुपद सिखाया. आज वह लड़की पाकिस्तान में ध्रुपद सिखा रही है. वहां का जाना-माना नाम है.
भोपाल प्रवास में हमारी नियमित मुलाकातें होती रहीं. दिल्ली आने के बाद सिलसिला थोड़ा कम हो गया. राज्यसभा टीवी का संपादक था तो उन पर आधा घंटे का एक अच्छा कार्यक्र म किया था. हमारी सहयोगी समीना ने यह विलक्षण शो पेश किया था. संभवत: 2012 का दिसंबर महीना था.
बेहद तकलीफ होती है यह सोचकर कि रमा - उमा की यह जोड़ी टूट गई है. उमाकांतजी कैसे इसे बर्दाश्त कर सके होंगे, कल्पना भी नहीं कर सकता. बड़े भाई का एक बाजू कट गया है. अब उन्हें अधिक बोझ उठाना पड़ेगा. उमाजी, आप अकेले नहीं हैं. हम सब आपके साथ हैं. आप ध्रुपद की यह मशाल जलाए रखिए.