राजेश बादल का ब्लॉग: देश के हित और अभिव्यक्ति की आजादी के सरोकार

By राजेश बादल | Published: May 11, 2021 09:43 AM2021-05-11T09:43:57+5:302021-05-11T09:46:53+5:30

कोरोना संकट के इस दौर में पत्रकारिता के तमाम अवतार यदि व्यवस्था की नाकामियों को उजागर करते हैं तो क्या इसे राष्ट्रीय हित से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है?

Rajesh Badal blog: Coronavirus crisis in India and discussion on Media and freedom of expression | राजेश बादल का ब्लॉग: देश के हित और अभिव्यक्ति की आजादी के सरोकार

राजेश बादल का ब्लॉग: देश के हित और अभिव्यक्ति की आजादी के सरोकार

लोकतंत्र में कोई भी महत्वपूर्ण स्तंभ सौ फीसदी निर्दोष नहीं हो सकता. इस निष्कर्ष से शायद ही कोई असहमत हो. न  कार्यपालिका, न विधायिका, न न्याय पालिका और न ही पत्रकारिता. वैसे तो पत्रकारिता को संवैधानिक तौर पर इस तरह का कोई दर्जा हासिल नहीं है लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. 

अभिव्यक्ति की आजादी का लाभ लेने वाले पत्रकार यदि अवाम का भरोसा जीतते हैं और अपना काम ईमानदारी से करते हैं तो फिर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता  कि पत्रकारिता संवैधानिक रूप से लोकतंत्र का स्तंभ है अथवा नहीं. 

कोरोना की इस भीषण आपदा में पत्रकारिता के तमाम अवतार यदि व्यवस्था की नाकामियों को उजागर करते हैं तो इसे राष्ट्रीय हित से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता. उसका मानना है कि मुल्क के अस्पतालों में बिस्तरों की कमी, ऑक्सीजन और दवाओं की कालाबाजारी, कोरोना के परीक्षण तथा बचाव के टीकों की गति में सुस्ती और जलती चिताओं के दृश्य दिखा कर भारतीय पत्रकार अच्छा नहीं कर रहे हैं. 

वे पश्चिम और यूरोप के देशों का हवाला देते हैं कि वहां भी मुर्दों की तस्वीरें और वीडियो नहीं दिखाए जाते. निस्संदेह वहां इस तरह की विचलित करने वाली सामग्री परदे और पन्नों पर नहीं परोसी जाती. मगर यह भी ध्यान देना होगा कि उन देशों में इलाज के अभाव में दम तोड़ना कितना अमानवीय और क्रूर माना जाता है. एक निर्दोष मौत भी अस्पताल में हो जाए तो सिस्टम को करोड़ों डॉलर का भुगतान करना पड़ जाता है. क्या भारत में हम इतनी सक्षम स्वास्थ्य प्रणाली बना पाए हैं जो किसी पत्रकार को आलोचना का कोई अवसर ही नहीं दे?

बीते दिनों देखा गया कि एक तरफ तो कमोबेश सारे प्रदेशों में कोरोना के चलते लॉकडाउन की स्थिति है, धारा 144 लगी है, जिसमें चार से ज्यादा व्यक्ति एकत्रित नहीं हो सकते. अधिकांश शहरों में कर्फ्यू लगा है. मास्क जरूरी और दो गज की दूरी से बच्चा-बच्चा वाकिफ है. 

इसके बावजूद चुनाव आयोग की अनुमति से पांच राज्यों में हजारों नागरिक रैलियों में मास्क के बगैर और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करते हुए सियासी पार्टियों में ले जाए गए. जब वे लौटे तो कोरोना का कई गुना विकराल रूप उनके साथ आया. 

गांव-गांव में लोग संक्रामक महामारी के शिकार हो गए. इस खतरनाक हालत को देखते हुए यदि मद्रास हाईकोर्ट टिप्पणी करता है कि चुनाव आयोग के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए तो इसमें क्या अनुचित है? भारतीय पत्रकारों ने इस टिप्पणी को प्रकाशित और प्रसारित कर दिया तो इस पर चुनाव आयोग के खिसियाने की कोई वजह नजर नहीं आती. लेकिन आयोग इतना बौखलाया कि सीधे सुप्रीम कोर्ट चला गया. 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने उसका अनुरोध ठुकरा दिया. इतना ही नहीं, इस आला संस्था ने संवाददाताओं की रिपोर्टिंग को सही ठहराया. उसने कहा कि पत्रकारिता ने अपना धर्म निभाया है.

अदालत रिपोर्टिंग नहीं रोक सकती. दरअसल पत्रकारिता की आजादी अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता का ही एक पहलू है. यह स्वतंत्रता तो भारत का संविधान ही देता है. बेहतर होगा कि चुनाव आयोग पत्रकारिता की शिकायत करने के बजाय कुछ बेहतर करे. सच तो यह है कि उच्च न्यायालयों ने कोरोना की जमीनी हकीकत पर लगातार नजर रखकर सराहनीय काम किया है.

उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी ने पिछले दिनों एक वर्ग से प्रायोजित उस बहस को भी विराम दे दिया है, जो कहता था कि कोरोना  से निपटने में व्यवस्था की नाकामी उजागर करना देश हित में उचित नहीं है और संविधान प्रदत्त कुछ मौलिक अधिकारों को अस्थाई तौर पर निलंबित कर देना चाहिए. 

असल में यह चर्चा देशहित और पत्रकारिता का घालमेल कर रही थी. जब सारे संसार के अखबार और टीवी चैनल इस क्रूर काल में भारत की चुनावी  रैलियों और कुंभ के जमावड़े की खिल्ली उड़ा रहे हैं तो भारत के पत्रकार इसे देश हित का मानकर चुप कैसे रह सकते हैं. 

यह भारत की सुरक्षा अथवा किसी शत्रु देश का हमला या कोई आतंकवादी वारदात नहीं है, जिसे मुल्क की हिफाजत से जोड़कर देखा जाए. प्रसंग के तौर पर मुंबई में एक होटल पर आतंकी हमले को याद करना जरूरी है. आतंकियों ने मुंबई के अनेक ठिकानों पर हमले किए थे. जवाब में सेना की कमांडो कार्रवाई की गई. उसे भारतीय टीवी चैनलों ने सीधा प्रसारित कर दिया था. 

पाकिस्तान में बैठे उग्रवादी आकाओं ने उस प्रसारण को देख अपने साथियों को निर्देश दिए थे. यह प्रसारण देश हित में कतई उचित नहीं था. इसीलिए भारत सरकार ने इन हमलों के बाद 27 नवंबर 2008 को सभी खबरिया चैनलों को दिशानिर्देश जारी किए थे. मैं स्वयं उन दिनों एक समूह के अनेक चैनलों का प्रमुख था और इन दिशानिर्देशों को जारी किया था. 

इनमें कहा गया था कि जनहित और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर कोई भी चैनल इस तरह का कवरेज नहीं दिखाएगा, जिससे किसी स्थान व व्यक्ति की लोकेशन पता चलती हो. इतना ही नहीं, घायलों और मृतकों के शवों को भी प्रसारित नहीं किया जाएगा, अन्यथा उनका लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है. आज तक उसका पालन हो रहा है. देशहित अलग है और पत्रकारिता के कर्तव्य अलग. देश ही नहीं रहा तो पत्रकारिता कहां होगी?

Web Title: Rajesh Badal blog: Coronavirus crisis in India and discussion on Media and freedom of expression

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