विजय दर्डा का ब्लॉग: राहुल गांधी की भाषा और औरों का झांसा!
By विजय दर्डा | Published: March 27, 2023 06:57 AM2023-03-27T06:57:59+5:302023-03-27T06:59:16+5:30
राहुल गांधी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि एक चुनावी सभा में की गई उनकी टिप्पणी जी का जंजाल बन जाएगी. सजा हो जाएगी और लोकसभा की सदस्यता चली जाएगी! इसलिए बहुत जरूरी है कि हम भाषा को लेकर संयमित रहें. लोकतंत्र में आलोचना जरूर है लेकिन उतना ही जरूरी है बोलने से पहले अपने शब्दों को तौलना!

विजय दर्डा का ब्लॉग: राहुल गांधी की भाषा और औरों का झांसा!
कहीं एक शेर पढ़ा था और वो शेर इस वक्त बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है..
इस जुबान में हड्डियां नहीं होतीं!
पर इसी जुबान से हड्डियां तुड़वाई जा सकती हैं...
स्वाभाविक रूप से प्रसंग राहुल गांधी का है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान कर्नाटक की एक सभा में उन्होंने ललित मोदी, नीरव मोदी के साथ ही कुछ और नाम लिए थे और अचंभित कर देने वाला यह सवाल खड़ा कर दिया था कि सभी चोरों के उपनाम मोदी ही क्यों होते हैं? उनकी इस बात से पूर्णेश मोदी नाम के सज्जन आहत हो गए. वे कोर्ट चले गए. राहुल गांधी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता 499 और 500 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. कोर्ट ने राहुल को दोषी माना और दो साल की सजा सुनाई है. इसके साथ ही लोकसभा से उनकी सदस्यता भी लगे हाथ समाप्त हो गई.
इस प्रसंग के कई आयाम हैं. कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं. उसके बाद 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है. इसके मद्देनजर राहुल गांधी की सदस्यता जाने से कांग्रेस की सेहत पर क्या असर पड़ेगा? राहुल की सदस्यता जाने के मामले को क्या जनता की अदालत में ले जाने में कांग्रेस सफल होगी? क्या इस कारण से विपक्ष एकजुट और मजबूत होगा? कांग्रेस क्या यह सवाल उठाएगी कि महाराष्ट्र में बच्चू कडू और सुधीर पारवे तथा देश के दूसरे राज्यों में भी सजा होने के बाद उन लोगों की सदस्यता तत्काल क्यों नहीं गई?
ऐसे बहुत से सवाल भविष्य के गर्भ में हैं. विपक्षी राजनीति की धारा क्या मोड़ लेती है, इस पर ही इन सवालों के जवाब निर्भर करेंगे. इसलिए मैं अभी इन सवालों की गहराई में जाने और पड़ताल करने की ज्यादा जरूरत नहीं समझता!
मुझे इस वक्त भाषा की मर्यादा का सवाल ज्यादा मौजूं लग रहा है. सामान्य तौर पर भी यदि किसी बात को लेकर विवाद बढ़ने लगे तो लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं कि जुबान फिसल गई होगी या संबंधित व्यक्ति भी यह कह देता है कि जुबान फिसल गई थी. ...लेकिन क्या जुबान वाकई फिसलती है? या यह बोलने के पहले न सोचने और न समझने का प्रतिफल है?
मेरे बाबूजी ज्येष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री जवाहरलाल दर्डा और मेरी मां की बातें मुझे अभी भी पूरी तरह याद हैं. दोनों कहा करते थे कि जब भी बोलो तो सोच-समझकर बोलो कि क्या बोल रहे हो. तुम्हारे बोलने का असर क्या होगा? किसी का दिल तो नहीं दुखेगा! अमूमन सभी माता-पिता अपने बच्चों को ये सीख देते हैं. इसके बावजूद कहीं चूक हो जाए तो भारतीय सनातन परंपरा में क्षमा मांगने का दस्तूर है. जैन धर्म में तो खास क्षमा पर्व भी है. लेकिन इस क्षमा का हकदार वही है जिससे चूक हुई हो. आप जान-बूझकर कुछ बोलें और फिर क्षमा मांगें तो इसका कोई औचित्य नहीं बनता है.
जहां तक राजनीति का सवाल है तो वहां भाषा की मर्यादा पर खास ध्यान होना चाहिए क्योंकि नेताओं के प्रशंसक वही रास्ता अख्तियार करते हैं जो उनका नेता करता है. यदि नेता के बोल-वचन बिगड़े हुए हैं तो स्वाभाविक रूप से उन्हें फॉलो करने वालों की भाषा वैसी ही हो जाएगी. राजनीति में आज जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होने लगा है उसे सुन कर तो जेहन से बस एक ही शेर बाहर आता है...
आजकल कहां जरूरत है हाथों में पत्थर उठाने की/तोड़ने वाले तो जुबान से ही दिल तोड़ देते हैं.
हम जब भाषा की बात करते हैं तो उसकी शालीनता के आधार पर उसे संसदीय और सभ्य भाषा कहते हैं. राजनीति में जो लोग हैं उनसे खासतौर पर यही उम्मीद की जाती है कि उनकी भाषा कम से कम सीमा न लांघे लेकिन दुर्भाग्य से राजनीति ने भाषा की शालीनता को सबसे ज्यादा खंडित करने का काम किया है. यह आक्षेप किसी राजनीतिक दल को लेकर नहीं है बल्कि सभी दलों में इस तरह के लोग हैं जो बोलने के पहले शायद एक बार भी नहीं सोचते कि वे जो बोल रहे हैं उसका प्रतिफल क्या हो सकता है.
संसद के भीतर तो ऐसे विकृत शब्दों को संसद की कार्यवाही से हटा दिया जाता है लेकिन बाहर क्या? वहां तो एक-दूसरे पर इस कदर हमला करते हैं जैसे जन्मजात दुश्मनी हो! लोकतंत्र में वैचारिक मतभिन्नता होती है लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं होना चाहिए कि किसी के लिए हत्यारा, कातिल, राक्षस, मौत के सौदागर, जहर की खेती से लेकर सांप और बिच्छू जैसे अपशब्दों का इस्तेमाल करें. मैं ये बातें पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए कह रहा हूं. और हां, इस बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद कोई भी व्यक्ति किसी पार्टी का नहीं बल्कि भारत का प्रधानमंत्री होता है.
देश के हर नागरिक को उस पद की गरिमा का सम्मान करना चाहिए. पत्रकारिता के अलावा मैं लंबे अरसे से सार्वजनिक जीवन में हूं. 18 साल के संसदीय जीवन का भी अनुभव है और इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि देश में वाकई शुचिता का माहौल स्थापित करना है तो भाषा की उसमें मुख्य भूमिका होगी. यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे समाज या धर्म के व्यक्ति की आलोचना के क्रम में सीमा लांघ जाता है तो पूरी बिरादरी आहत होती है. इससे समाज का ताना-बाना दरकता है. ऐसी छोटी-छोटी चूक बड़ी समस्याओं को जन्म देती है.
हमारे पूर्वज नेता इस बात को अच्छी तरह समझते थे इसलिए वे सघन आलोचना के बीच भी कभी भाषा की शालीनता को नहीं छोड़ते थे. आलोचना में भी सम्मान का भाव होता था. दुर्भाग्य से हालात खराब होते जा रहे हैं. भारत जैसे बहुआयामी और बहुसंस्कृति व बहु बोली वाले देश में बोल-वचन के मामले में ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. ध्यान रखिए कि ये खासियत बस जुबान की है कि नीम की गोली को भी चाहे तो शहद में डुबो दे..!
कबीर दास जी हम सबके लिए ही बहुत पहले कह गए हैं..
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय/औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय.