पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: आसान नहीं रहा है मातोश्री से मंत्नालय का सफर

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 29, 2019 07:13 AM2019-11-29T07:13:42+5:302019-11-29T07:13:42+5:30

साठ के दशक में मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्न में गुजराती छाये हुए थे. दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था

Punya Prasun Bajpai Blog: Uddhav Thackeray Journey from Matoshree to Ministry is not been easy | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: आसान नहीं रहा है मातोश्री से मंत्नालय का सफर

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: आसान नहीं रहा है मातोश्री से मंत्नालय का सफर

उद्धव ठाकरे ने जब सीएम पद की शपथ ली तब हर शिवसैनिक बालासाहब ठाकरे को जरूर याद कर रहा होगा. हो सकता है सोच भी रहा हो कैसे सत्ता के लिए शिवसेना की वह बंद मुट्ठी खुल गई जिसे कभी बालासाहब ने खुलने नहीं दिया. मातोश्री मुंबई या कहें महाराष्ट्र की सियासत का ऐसा केंद्र हर दौर में बना रहा जहां सत्ता संभालने, चलाने और बिखराने की चाबी थी. 

यानी सत्ता से दूर रहकर सत्ता को अपनी अंगुलियों पर नचाने का एक ऐसा सियासी तरीका शिवसेना ने ही निकाला जहां वह मराठी मानुष के लिए जीती-मरती दिखाई देती. जहां हिंदुत्व की हुंकार को समेटे दिखाई देती. वक्त बदला, सियासत बदली और अब जब महाराष्ट्र की कमान उद्धव के हाथ है तो फिर शिवसेना के जमीनी सफर पर निकलना भी जरूरी है और समझना भी जरूरी है कि कैसे बालासाहब ने शिवसेना को गढ़ा और शिवसैनिक को तैयार किया. 

दरअसल बालासाहब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केंद्र बना दिया जो नेहरू की कॉस्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी. नेहरू क्षेत्रीयता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे. लेकिन क्षेत्रीयता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था. इसकी सबसे बड़ी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार-बार हिचकोले मारती. 

पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाली पराक्रमी जाति के रूप में मराठों को गौरवान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्नता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी. इन स्थितियों को बालासाहब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए उभारा. 

साठ के दशक में मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्न में गुजराती छाये हुए थे. दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था. टैक्सी और स्पेयर पार्ट्स के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था. लिखाई-पढ़ाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी. भोजनालयों में उड्डपी यानी कन्नड़वासी और ईरानियों का रुतबा था. भवन निर्माण में सिंधियों का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे. 

ऐसे में मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था ‘आमची मुंबई आहे’ लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था. इस वजह से मुंबई के बाहर से आने वाले गुजराती, पारसी, दक्षिण भारतीयों और उत्तर भारतीयों के लिए मराठी सीखना जरूरी नहीं था. हिंदी-अंग्रेजी से काम चल सकता था. उनके लिए मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था. बालासाहब ठाकरे ने इसके खिलाफ राजनीतिक जमीन बनानी शुरू की. 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रूप में उन्होंने अपनी उपयोगिता साबित कर दी. 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा दिखा दिया और फिर शिवसेना रुकी नहीं. 

विधानसभा और लोकसभा में भाजपा के साथ मिलकर दस्तक देने का जो सिलसिला 1989 से शुरू हुआ उसमें अयोध्या आंदोलन ने किसी छौंक का काम किया और जिस भाजपा को 6 दिसंबर 1992 का सियासी लाभ सत्ता पाने के ख्याल से 1996 के लोकसभा चुनाव में मिल नहीं पाया और विधानसभा में यूपी में हार से मिला, वहीं ठसक के साथ बाबरी मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी लेने वाले बालासाहब ठाकरे की सीट 1996 के लोकसभा चुनाव से 4 से 16 पर पहुंच गई तो 1995 के विधानसभा में न सिर्फ 52 से 73 तक पहुंचे बल्कि पहली बार 1995 में शिवसेना के मनोहर जोशी सीएम भी बने. 

यानी बीते पचास साल में इसी राजनीति को करते हुए बालासाहब ठाकरे सत्ता तक भी पहुंचे और जो राजनीतिक जमीन बालासाहब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनाई, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वहीं रह गए. शिवसेना और उद्धव ठाकरे उससे इतना आगे निकल गए कि उनका लौटना मुश्किल है. 

उद्धव ठाकरे को नई शिवसेना बनानी है, जहां दुश्मनी नहीं दोस्ती और सरोकार की राजनीति मायने रखेगी  और साथ में वह कांग्रेस और एनसीपी है जिसके खिलाफ आग उगलते शिवसैनिकों को हमेशा लगता रहा कि मातोश्री जब है तो उन्हें किस बात की चिंता है. तो शिवसैनिक कितना कैसे बदलेगा ये सवाल तो हर जहन में आ सकता है. 

लेकिन इस मुश्किल सवाल का आसान जवाब यही है कि मोदी-शाह के दौर में भाजपा का रुख शिवसेना सरीखा भी हो गया और जिस हिंदुत्व की डोर को हर शिवसैनिक थामे हुआ था उसका इलाज खुद ही अयोध्या में राम मंदिर बनाने तो कश्मीर से धारा 370 समाप्त करने और पाकिस्तान के साथ जूझ कर साफ संकेत उभर गए कि अब ये मुद्दे नहीं हैं और अब राजनीति का रास्ता सॉफ्ट हिंदुत्व, संविधान परस्त और विकास की राह का है. यानी महाराष्ट्र की राजनीति को हांकने वाली शिवसेना का गढ़ अब मातोश्री नहीं बल्कि सियासत चलाने वाली शिवसेना का नया गढ़ मंत्नालय की छठी मंजिल है. 

Web Title: Punya Prasun Bajpai Blog: Uddhav Thackeray Journey from Matoshree to Ministry is not been easy

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