पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः वैकल्पिक सोच विकसित करने की चुनौती

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 17, 2018 04:04 AM2018-11-17T04:04:46+5:302018-11-17T04:04:46+5:30

हली बार लोकसभा चुनाव की आहट देश को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है जहां वैकल्पिक सोच हो या न हो लेकिन सत्ता बदलती है तो नई सत्ता को सोचना पड़ेगा यह तय है अन्यथा नई सत्ता का बोरिया बिस्तर तो और जल्दी बंध जाएगा. 

Punya Prasoon Vajpayee's Blog: Challenge of Developing Alternative Thoughts | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः वैकल्पिक सोच विकसित करने की चुनौती

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः वैकल्पिक सोच विकसित करने की चुनौती

किसान की कर्ज माफी और रोजगार से आगे बात अभी भी जा नहीं रही है. बीते ढाई दशक के दौर में चुनावी वादों के जरिए देश के हालात को समझे तो सड़क, बिजली, पानी पर अब जिंदगी जीने के हालात भारी पड़ रहे हैं और ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई सत्ता संभालने के लिए बेचैन देश के राजनीतिक दलों के पास कोई वैकल्पिक सोच है ही नहीं. क्योंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावी महासंग्राम में कूदी देश की दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां भी या तो खेती के संकट से जूझते किसानों को फुसलाने में लगी हैं या फिर बेरोजगार युवाओं की फौज के घाव में मलहम लगाने की कोशिश कर रही हैं. और चूंकि चार महीने बाद ही देश में आम चुनाव का बिगुल बजेगा तो हिंदी पट्टी के इन तीन राज्यों के चुनाव भी खासे महत्वपूर्ण हैं और पहली बार लोकसभा चुनाव की आहट देश को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है जहां वैकल्पिक सोच हो या न हो लेकिन सत्ता बदलती है तो नई सत्ता को सोचना पड़ेगा यह तय है अन्यथा नई सत्ता का बोरिया बिस्तर तो और जल्दी बंध जाएगा. 

ये सारे सवाल इसलिए क्योंकि 1991 में अपनाई गई उदारवादी आर्थिक नीतियों तले पनपे या बनाए गए या फले-फूले आर्थिक संस्थान भी अब संकट में आ रहे हैं और ध्यान दीजिए तो राजनीतिक सत्ता ने इस दौर में हर संस्थान को हड़पा जरूर या उस पर कब्जा जरूर किया लेकिन कोई नई सोच निकल कर आई नहीं. कांग्रेस के बाद भाजपा सत्ता में आई तो उसके पास सपने बेचने के अलावा कोई आर्थिक मॉडल है ही नहीं और सपनों का पहाड़ भाजपा के दौर में जिस तरह बड़ा होता गया उसके समानांतर अब कांग्रेस जिन संकटों से निजात दिलाने का वादा वोटरों से कर रही है अगर उसे सौ फीसदी पूरा कर दिया गया तो होगा क्या? इस सवाल पर अभी सभी खामोश हैं. 

तो इसे तीन स्तर पर परखें. पहला, कांग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि वह सिर्फ जुमले बेच कर सत्ता में टिकी नहीं रह सकती. यानी उसे भाजपाकाल से आगे जाना ही होगा. दूसरा, जो वादे कांग्रेस कर रही है मसलन, दस दिन में किसानों की कर्ज माफी या न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि या बिजली बिल माफ; अगर कांग्रेस इसे पूरा करती है तो फिर बैंक सहित उन तमाम आर्थिक संस्थानों की रीढ़ और टूटेगी इससे इंकार किया नहीं जा सकता. सपने बेचने या लेफ्ट की आर्थिक नीतियों के अलावा तीसरा विकल्प सत्ता में आने के बाद किसी भी राजनीतिक सत्ता के सामने यही बचेगा कि वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की तरफ बढ़े. सही मायने में यही वह आस है जो भारतीय लोकतंत्न के प्रति उम्मीद जगाए रखती है. क्योंकि मोदी के काल में तमाम अर्थशास्त्नी या संघ के विचारों से जुड़े बुद्धिजीवी उदारवादी आर्थिक नीतियों से आगे सोच ही नहीं पाए और इस दौर में देश के तमाम संस्थानों को अपने मुताबिक चलाने की जो सोच पैदा हुई उसने संकट इतना तो गहरा ही दिया है कि अगर सत्ता में आने के बाद कांग्रेस सिर्फ यह सोच ले कि देश में लोकतंत्न लौट आया और अब वह भी सत्ता की लूट में लग जाएगी तो 2019 के बाद देश इस हालात को बर्दाश्त करने की स्थिति में होगा नहीं. 

दरअसल, भाजपा की सत्ता क्यों कांग्रेस की बी टीम या कार्बन कापी की तरह ही वाजपेयी काल में उभरी और मोदी काल में भी. कांग्रेस से अलग होते हुए भी सत्ता में आते ही भाजपा का भी कांग्रेसीकरण क्यों होता रहा है और अब कांग्रेस के सामने ये हालात क्यों बन रहे हैं कि वह वैकल्पिक सोच विकसित करे. इसके कारण कई हैं जैसे कांग्रेस की उदारवादी नीतियां. मोदी की चुनावी गणित अनुकूल करने की कॉर्पोरेट नीतियां. क्षत्नपों का चुनावी गणित के लिए सोशल इंजीनियरिंग पर टिकना.  

यहीं से अब सबसे बड़ा सवाल राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक है कि क्या वाकई देश ऐसे मुहाने पर जा पहुंचा है जहां हर नई सत्ता को वैकल्पिक सोच की दिशा में बढ़ना होगा क्योंकि विपक्ष का राजनीतिक नैरेटिव मौजूदा सत्ता की नीतियों से ठीक उलट है या खारिज कर रहा है. यहां कोई भी सवाल खड़ा कर सकता है कि भाजपा ने तो हमेशा कांग्रेस के उलट पॉलिटिकल स्टैंड लिया लेकिन सत्ता में आते ही उसने कांग्रेसी धारा को अपना लिया. 

तो आखरी सवाल यही है कि क्या वाकई सत्ता अपने बनाए दायरे से बाहर की वैकल्पिक सोच को अपनाने से कतराती है. या फिर भारत का इकोनॉमिक मॉडल जिस दिशा में जा चुका है उसमें विदेशी पूंजी ही सत्ता चलाती है और भारतीय किसान हो या मजदूर या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त युवा, सभी को प्रवासी मजदूर के तौर पर होना ही है. सत्ता सिर्फ गांव से शहर और शहर से महानगर और महानगर से विदेश भेजने के हालात को ही बना रही है जिससे शरीरिक श्रम के मजदूर हों या बौद्धिक मजदूर सभी असमान भारत के बीच रहते हुए या विदेशी जमीन पर मजदूरी या रोजगार करते हुए भारत में पूंजी   भेजें जिस पर टैक्स लगाकर सरकार मस्त रहे और देश लोकतंत्न के नाम पर हर सत्ता को सहूलियत देता रहे.

Web Title: Punya Prasoon Vajpayee's Blog: Challenge of Developing Alternative Thoughts

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