'इस्लामी' एंगल भूल कश्मीर पर बात करना मुश्किल, 'आजादी' माँगने वालों को पहले देना चाहिए इन 3 सवालों के जवाब
By विकास कुमार | Published: February 16, 2019 05:01 PM2019-02-16T17:01:01+5:302019-02-16T17:02:09+5:30
कश्मीर में आजादी की लड़ाई की तीव्रता सबसे ज्यादा जुमे के नमाज के दिन दिखती है और उस दिन वहां के नौजवान हांथ में इस्लामिक स्टेट का झंडा लेकर अपनी आजादी की मांग को मस्जिदों के लाउडस्पीकर के जरिये उठाते हैं. इस्लामिक स्टेट के पैटर्न पर आजादी का कौन सा मॉडल खड़ा हो सकता है?
कश्मीर पिछले सात दशकों से भारत और पाकिस्तान के बीच नाक का सवाल बना हुआ है. पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का प्रयास करता है ताकि भारत के सामरिक हितों को नुकसान पहुँचाया जा सके, वहीं भारत पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को भी अपना अभिन्न अंग बताता रहा है.
कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध 1948 में हुआ था जिसके फलस्वरूप जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य का विलय भारत में करना स्वीकार किया था।
आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर कमोबेश शांत रहा लेकिन 1980 के दशक के आखिर धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस भारतीय राज्य में सीमा पार घुसपैठ और आतंकवाद ने जड़े जमाने शुरू कर दीं। 1989 में कश्मीर में कश्मीरी पण्डितों के बड़ी संख्या में पलायन के बाद से राज्य की राजनीति में सांप्रदायिक कलेवर में ढलने लगी।
बहुत से विश्लेषक कश्मीर की मौजूदा समस्या को केवल भूराजनीति या कुटिल पड़ोसी (पाकिस्तान) के एंगल से देखने और दिखाने की कोशिश करते हैं लेकिन यह मसले का पूरा सच नहीं है।
अगर 1989 से लेकर 2019 तक के तीन दशकों के बीच जम्मू-कश्मीर में हुई हिंसा का ग्राफ देखें तो इसमें पिछले कुछ सालों में एक बड़ा बदलाव साफ महसूस किया जा सकता है। पिछले कुछ सालों में आतंक की राह चुनने वाले कश्मीर के नौजवानों की संख्या पहले से काफी बढ़ गयी है।
8 जुलाई 2016 को भारतीय सुरक्षाबलों के हाथों मारे गए आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी के नौजवानों में आतंकवाद से जुड़ने की रफ्तार पहले से बढ़ी है।
अगर इन नौजवानों के आतंकवादी बनने की क्रिया और प्रक्रिया को गौर से देखें तो कश्मीरी नौजवानों और अन्य यूरोपीय देशों के नौजवानों के सीरिया और इराक इत्यादि जाकर इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन में शामिल होने पैटर्न से समानता दिखती है।
ये नौजवान केवल कश्मीर के लिए तो कत्तई नहीं हथियार उठा रहे। उनके हिंसा की राह चुनने के पीछे कहीं न कहीं दीन (इस्लाम) और दारुल-हरम (इस्लामी राज्य) के लिए कुर्बान होने की भावना भी काम करती है।
भले ही चर्चित बुद्धिजीवी इस सवाल से मुँह चुराते हों लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने कश्मीर और आतंकवाद से छिड़ी एक बहस के दौरान कश्मीर में जनमत संग्रह के समर्थक और जवाहरलाल नेहरू (जेएनयू) के छात्र नेता उमर खालिद से तीन सवाल पूछे थे।
कश्मीर समस्या पर विचार करते हुए सभी बुद्धिजीवीयों को जस्टिस काटजू के उन तीन सवालों का जवाब अवाम को जरूर देना चाहिए।
कश्मीर पर जस्टिस काटजू के तीन सवाल-
जस्टिस काटजू का पहला सवाल- बुरहान वानी की विचारधारा क्या थी? क्या वो इस्लामिक कट्टरवादी था?
जस्टिस काटजू का दूसरा सवाल- कश्मीर की जनता के लिए वहां की 'आजादी' के दीवानों के पास विकास का कोई आर्थिक मॉडल है क्या? इन लोगों ने यह कभी नहीं बताया कि भारत से आजादी मिलने के बाद ये कैसे कश्मीर के लोगों के जीवन-स्तर में सुधार लाने का काम करेंगे?
जस्टिस काटजू का तीसरा सवाल- आखिर भारत से आजाद होने बाद गरीब कश्मीर किसी देश से सहायता मांगेगा, लेकिन इस सहायता के बदले तो फिर से अर्थी गुलाम नहीं बनेगा, इसकी क्या गारंटी है? मार्कंडेय काटजू के इन सवालों का सामना कश्मीर के सभी लोगों को करना चाहिए.
कश्मीर की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत और पाकिस्तान प्रशासित के रूप में है. पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में भी आये दिन वहां के स्थानीय लोग सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करते हैं और आजादी की मांग करते हैं. इसके उलट भारत के कश्मीर में हिजबुल, जैश, लश्कर-ए-तैयबा और अलकायदा की रूचि ये बताने के लिए काफी है कि कश्मीर में आजादी की मांग की आड़ में इस्लामीकरण की भयंकर साजिश चल रही है.