प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल का ब्लॉग: कैसे बनेगी न्याय की भाषा हिंदी!
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: September 14, 2020 01:47 PM2020-09-14T13:47:41+5:302020-09-14T13:47:41+5:30
भारत की स्वतंत्नता के 73 बरस तथा हिंदी को राजभाषा भाषा के रूप में स्वीकृति के 71 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्वभाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकी है. लेकिन यह ध्यान रहे कि न्याय व्यवस्था का प्रश्न मात्न भाषा का नहीं है.
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल
यह बहुत बड़ी विडंबना है कि हमारे देश में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की बात तो होती है परंतु देश के उच्च न्यायालयों की भाषा हिंदी हो, इस पर लोग मौन हैं. राजभाषा पर संसदीय समिति ने 28 नवंबर 1958 को संस्तुति की थी कि सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए. इस संस्तुति को पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है, किंतु इस दिशा में आगे कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है. जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 की धारा 2 के अनुसार किसी भी प्रदेश के राज्यपाल राष्ट्रपति महोदय की पूर्व सहमति से उस प्रदेश के उच्च न्यायालय में हिंदी या उस प्रदेश की राजभाषा में उच्च न्यायालय की कार्यवाही संपादित करने की अनुमति दे सकते हैं. इसी अनुच्छेद का लाभ लेते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी कार्यवाही की अनुमति दी गई. परंतु इसी तरह की मांग जब अन्य राज्यों से की गई तो उनकी मांग को ठुकरा दिया गया.
वर्ष 2008 में विधि आयोग को सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी में कामकाज की संभावना पर अपनी संस्तुति देने का कार्य सौंपा गया था. किंतु विधि आयोग ने नकारात्मक रिपोर्ट दी और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर एक बार फिर प्रतिबंध लग गया. 27 जुलाई 2009 को संसद में विधि आयोग के 216वें प्रतिवेदन के संबंध में जानकारी देते हुए तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्नी वीरप्पा मोइली का वक्तव्य था कि आयोग ने हिंदी को न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के कामकाज के लिए अव्यावहारिक बताया है. इसके पीछे राजनीति तो थी ही, भारतीय विधि शिक्षा का अभारतीय स्वरूप भी इसका महत्वपूर्ण कारण है.
शिक्षा के भारतीयकरण के अभियान को नई शिक्षा नीति 2020 के द्वारा सफलता प्राप्त हुई है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रतिबंध को लेकर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है. भारत की स्वतंत्नता के 73 बरस तथा हिंदी को राजभाषा भाषा के रूप में स्वीकृति के 71 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्वभाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकी है. लेकिन यह ध्यान रहे कि न्याय व्यवस्था का प्रश्न मात्न भाषा का नहीं है. स्वयं न्याय की अवधारणा, विधि का विवेचन और उसके न्यायानुकूल होने का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है. न्याय व्यवस्था का आधार विधिशास्त्न है. विधि का लेखन जिस भाषा में होता है, वह साधारण भाषा है. प्रत्येक साधारण भाषा स्वाभाविक ही अपने परिवेश के आधार पर अर्थ संस्थान का निर्माण करती है. अनूदित विधि हमेशा अर्थ बोध के लिए मूल भाषा की मुखापेक्षी होती है.
यहां यह भी ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों का मुख्य कार्य विधि को संविधान तथा प्राकृतिक न्याय के आलोक में व्याख्यायित करने का है, साथ ही अवर न्यायालयों के निर्णय का न्यायिक पुनरीक्षण भी करना होता है. ये दोनों कार्य भाषाई विश्लेषण पर आधारित निर्वचन प्रणाली की अपेक्षा करते हैं. अभी तक भारत में विधि के निर्वचन हेतु जिस सिद्धांत का बहुधा प्रयोग होता है वह मैक्सवेल का ‘ऑन दी इंटरप्रिटेशन ऑफ स्टेट्यूट्स’ नामक ग्रंथ है. व्याख्या की वैकल्पिक विधि के अभाव का बोध मात्न वह कारण है जो कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी में कामकाज की संभावना पर पानी फेर देता है. यह किताब स्वयं में कोई विधि नहीं है अपितु विधिशास्त्न की एक ऐसी किताब है जो परंपरा द्वारा विधि की प्रामाणिक व्याख्या प्रणाली के रूप में स्वीकृत हो गई है.
यह सच है कि हिंदी भाषा में इस तरह की प्रणाली का विकास नहीं हुआ है. अत: सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के हिंदी में कामकाज में कठिनाई स्वाभाविक है. यदि हिंदी को तथा हिंदी के साथ ही साथ अन्य भारतीय भाषाओं को वास्तविक रूप से न्यायिक कामकाज की भाषा बनाना है तो संविधि की व्याख्या का सिद्धांत तैयार करना होगा. यह कार्य अनुवाद से संभव नहीं है क्योंकि सांविधिक व्याख्या या निर्वचन, निर्वाच्य से जुड़े सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संदर्भो पर आधारित तो होती ही है, संविधि की भाषा के भाषाशास्त्नीय नियमों पर भी आश्रित होती है. इसलिए हिंदी में संविधि की व्याख्या के लिए एक मौलिक व्याख्याशास्त्न की आवश्यकता है.
मैकाले को नकार कर भारतोचित शिक्षा की आवश्यकता को नई शिक्षा नीति 2020 पूर्ण करती है. अब समय आ गया है कि न्याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिये मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा. हिंदी के राजभाषा बनने के इतने वर्षो बाद इस कार्य का संकल्प हर ऐसे अध्येता को लेना चाहिए जो हिंदी में लिख सकता है, विश्लेषण कर सकता है.