प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल से सामने आते खतरे
By प्रमोद भार्गव | Published: July 21, 2020 01:16 PM2020-07-21T13:16:41+5:302020-07-21T13:16:41+5:30
आज वैज्ञानिकों को कहना पड़ रहा है कि एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा पर अंकुश लगना चाहिए. कुछ ऐलोपैथी चिकित्सक भी कोरोना से बचने के लिए कई जड़ी-बूटियों का दवा के रूप में इस्तेमाल करने की सलाह दे रहे हैं.
कोरोना काल में पूर्णबंदी रहने के बावजूद सभी प्रकार की दवाओं की दुकानें खुली रखने की छूट रही है. इसके बावजूद देखने में आया कि अंग्रेजी दवाओं के कारोबार पर बुरा असर पड़ा है.
आम बीमारियों की दवाओं की बिक्री 50 प्रतिशत तक घटी है. झारखंड के 17000 दुकानदारों ने जहां पिछले साल अप्रैल में लगभग 140 करोड़ रु. की दवाएं बेची थीं, वहीं इस वर्ष अप्रैल में यह आंकड़ा 50 करोड़ के आसपास सिमट गया. इनमें भी जेनरिक दवाओं की बिक्री पर ज्यादा असर पड़ा, जबकि ब्रांडेड दवाओं का कारोबार लगभग ठीक रहा.
सर्दी, जुकाम, बुखार, पेट की गड़बड़ी से जुड़ी बीमारियों की दवाएं तो कम बिकीं ही, मधुमेह और रक्तचाप की दवाएं भी कम बिकीं. चिकित्सक व दवा विक्रेता इसका कारण लॉकडाउन के दौरान घर पर रहना, वाहनों का कम चलना, होटल बंद रहना और पर्यावरण में सुधार मान रहे हैं.
इसके अन्य कारणों में निजी अस्पताल व नर्सिंग होम बंद रहने के कारण ज्यादातर प्रसव या तो सरकारी अस्पतालों में हुए या फिर घर पर प्राकृतिक स्थिति में हुए हैं.
यदि ये प्रसव नर्सिंग होम में होते तो अधिकांश ऑपरेशन से होते. इसमें तय है महिला के स्वस्थ होने में दवाओं की खपत ज्यादा होती. दवाओं की इस घटती बिक्री और सामान्य रूप में हुए प्रसवों के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठता है कि क्या हमारे चिकित्सक किसी प्रलोभन में बैक्टीरियल बीमारियों से जुड़ी एंटीबायोटिक दवाएं बेवजह देते रहे और सर्जरी की जरूरत नहीं होने पर भी शल्य क्रि या से बच्चे पैदा कराते रहे?
भारत में बेवजह एंटीबायोटिक दवाएं रोगियों को देने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बार-बार चेतावनी देता रहा है. दरअसल डब्ल्यूएचओ का मानना है कि ज्यादा एंटीबायोटिक दवा देने से मनुष्य की प्रतिरोधात्मक क्षमता घटती है. कोविड-19 का ज्यादा असर भी ऐसे ही लोगों पर देखा जा रहा है.
एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर अर्से से जताई जा रही चिंता कोरोना काल में सही साबित हुई है. कुछ साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध कम हो रही प्रतिरोधात्मक क्षमता को मानव स्वास्थ्य के लिए एक वैश्विक खतरे की संज्ञा दी थी.
इस रिपोर्ट से साफ हुआ है कि चिकित्सा विज्ञान के नए-नए आविष्कार और उपचार के अत्याधुनिक तरीके भी इंसान को खतरनाक बीमारियों से छुटकारा नहीं दिला पा रहे हैं.
चिंता की बात यह है कि जिन महामारियों के दुनिया से समाप्त होने का दावा किया गया था, वे फिर आक्रामक हो रही हैं. तय है कि मानव जीवन के लिए हानिकारक जिन सूक्ष्म जीवों को नष्ट करने की दवाएं व टीके ईजाद किए गए थे, वे रोगनाशक साबित नहीं हुए.
2014 में डब्ल्यूएचओ ने 114 देशों से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट में कहा था कि कम होती प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है. रिपोर्ट में एक ऐसे पोस्ट एंटीबायोटिक युग की आशंका जताई गई थी जिसमें लोगों के सामने फिर उन्हीं सामान्य संक्रमणों के कारण मौत का खतरा होगा जिनका पिछले कई दशकों से इलाज संभव हो रहा है.
यह रिपोर्ट निमोनिया, डायरिया और रक्त संक्रमण का कारण बनने वाले सात अलग-अलग जीवाणुओं पर केंद्रित है. रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन में शामिल आधे से ज्यादा लोगों पर दो प्रमुख एंटीबायोटिक का प्रभाव नहीं पड़ा. स्वाभाविक तौर पर जीवाणु धीरे-धीरे एंटीबायोटिक के विरु द्ध अपने अंदर प्रतिरक्षा क्षमता पैदा कर लेता है.
लेकिन इन दवाओं के हो रहे अंधाधुंध प्रयोग से यह स्थिति अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से सामने आ रही है. वैज्ञानिकों ने एंटीबायोटिक दवाओं की खोज करके महामारियों पर एक तरह से विजय-पताका फहरा दी थी. लेकिन चिकित्सकों ने इन दवाओं का इतना ज्यादा प्रयोग किया कि बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों ने प्रतिरोधात्मक दवाओं के विपरीत ही प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल कर ली.
इसलिए आज वैज्ञानिकों को कहना पड़ रहा है कि एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा पर अंकुश लगना चाहिए. कुछ ऐलोपैथी चिकित्सक भी कोरोना से बचने के लिए कई जड़ी-बूटियों का दवा के रूप में इस्तेमाल करने की सलाह दे रहे हैं. बेशुमार एंटीबायोटिक दवाओं की मार से बचने का यही एक कारगर उपाय है कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का प्रयोग बढ़े और एंटीबायोटिक दवाओं पर अंकुश लगे.