प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: जलवायु परिवर्तन समझौते को झटका
By प्रमोद भार्गव | Published: November 9, 2019 07:07 AM2019-11-09T07:07:09+5:302019-11-09T07:07:09+5:30
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों को यदि अमेरिका जैसी बड़ी अर्थव्यस्था वाले देश तोड़ने लग जाएंगे, तो भविष्य में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं का कोई महत्व नहीं रह जाएगा.
संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में 12 दिसंबर 2015 को जो ऐतिहासिक ‘पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता’ हुआ था, उसको बड़ा झटका लगा है. इस समझौते पर अमेरिका, भारत व चीन समेत 188 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. अमेरिका ने इस पर 22 अप्रैल 2016 को हस्ताक्षर किए थे. किंतु अब अमेरिका ने इस अनुबंध से बाहर आने की आधिकारिक सूचना संयुक्त राष्ट्र को दे दी है.
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने इस सूचना का ऐलान कर दिया है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘पेरिस समझौते के अनुच्छेद 28 के अनुसार कोई भी देश इससे बाहर हो सकता है. इस सिलसिले में अमेरिका की लिखित सूचना मिल गई है.’
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक जून 2017 को ही पेरिस समझौते से हटने की घोषणा कर दी थी. लेकिन अब लिखित सूचना के बाद अमेरिका को बाहर करने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, जो 4 नवंबर 2020 तक पूरी होगी. याद रहे कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस समझौते के प्रमुख पैरोकारों में से एक थे.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों को यदि अमेरिका जैसी बड़ी अर्थव्यस्था वाले देश तोड़ने लग जाएंगे, तो भविष्य में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं का कोई महत्व नहीं रह जाएगा.
न ही वैश्विक समस्याओं पर आगे कोई सहमति बन पाएगी. इस नाते अमेरिका का इस वैश्विक करार से बाहर आना दुनिया के सुखद भविष्य के लिए बेहतर संकेत नहीं है. जबकि अमेरिका सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों में प्रमुख है. इस करार से अमेरिका का बाहर आना समूचे विश्व के लिए अशुभ है. अपने औद्योगिक हितों की चिंता और आत्मकेंद्रित चुनावी वादे की सनक पूर्ति के लिए ट्रम्प ने यह पहल की है.
दरअसल अमेरिका में जल्दी ही राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहे हैं. ट्रम्प एक बार फिर उम्मीदवार होंगे. वे अपनी जीत उन कोयला खदान वाले क्षेत्रों में देख रहे हैं, जिनसे लाखों लोगों की आजीविका जुड़ी है. कुछ साल पहले जब इनके बंद होने की प्रक्रिया शुरू हुई, तो हजारों लोग बेरोजगार होने लग गए थे.
साफ है, यदि ट्रम्प जलवायु परिवर्तन समझौते से बाहर नहीं आते तो उन्हें कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश के लिए कोयला खदानें बंद करनी पड़तीं, नतीजतन एक बड़ा वोट बैंक प्रभावित होता जो ट्रम्प की हार का कारण बन सकता था. इसलिए ट्रम्प ने समझदारी बरतते हुए इन खदानों को चालू रखने के लिए अनुबंध को तोड़ना निजी लाभ के लिए बेहतर माना.
हालांकि विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी ने समझौते से अलग होने के ट्रम्प के फैसले की कड़ी आलोचना की है. पर्यावरण सरंक्षण से जुड़े कई अमेरिकी ट्रस्टों ने भी इस फैसले को गलत बताया है.