प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: भारत में आसान नहीं चीतों के पुनर्वास का काम
By प्रमोद भार्गव | Published: March 2, 2021 05:04 PM2021-03-02T17:04:50+5:302021-03-02T17:05:37+5:30
सर्वोच्च न्यायालय ने 75 साल पहले देश से लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्यप्रदेश सरकार के वन विभाग को दी है. टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नामीबिया से लाकर सागर जिले के नौरादेही या श्योपुर के कूनो-पालपुर अभ्यारण्य में नया ठिकाना बनाया जाएगा.
देश में अफ्रीकी चीता आने की उम्मीद बढ़ रही है. इन्हें पालने का अवसर टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश को मिल सकता है. दरअसल चीते के अनुकूल वातावरण मध्यप्रदेश के दो अभ्यारण्यों में मौजूद है. ये कूनो-पालपुर और नौरादेही हैं. भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून ने अंतिम परीक्षण के लिए दोनों अभ्यारण्यों में विशेषज्ञों के दल भेज दिए हैं. ये बारीकी से इन क्षेत्रों में आवास, आहार और प्रजनन की सुविधाओं का अध्ययन करेंगे. यदि ये अभ्यारण्य इस परीक्षा में खरे उतरते हैं तो चीतों को बसाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा. यह कवायद सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के मुताबिक की जा रही है.
मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक से चीतों को बसाने की तैयारी के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जा रही हैं. दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता है. हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर जिले का कूनो-पालपुर अभ्यारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज्यादा श्रेष्ठ माना गया. यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है.
एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी. लेकिन 1947 के आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई. 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था, जिसे मार गिराया गया. चीता तेज रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है. अपनी विशिष्ट एवं लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी. शरीर में इसी चपलता के कारण यह जंगली प्राणियों में सबसे तेज दौड़ने वाला धावक था.
मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा. इस अभ्यारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किमी क्षेत्र प्रस्तावित है. यह इलाका सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर जिलों में फैला हुआ है. सबसे ज्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 ग्राम सागर जिले में हैं. हालांकि इनमें से 10 ग्रामों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है. शेष ग्राम छतरपुर व नरसिंहपुर जिलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है. गोया, जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है, उससे ज्यादा कठिन व खर्चीला काम ग्रामों का विस्थापन है. क्योंकि चीतों एवं सिंहों के जब-जब देश में पुनर्वास के प्रयत्न हुए हैं, असफल ही रहे हैं.
दरअसल, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीते लाए गए थे, लेकिन छह माह के भीतर ही ये चारों चीते मर गए. चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गए थे, लिहाजा उम्मीद थी कि यदि इनकी वंशवृद्धि होती है तो देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभ्यारण्यों में ये चीते स्थानांतरित किए जाएंगे. हालांकि चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है. नतीजतन प्रजनन संभव होने से पहले ही चीते मर गए.
बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए जाने वाले चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं. राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है. अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं. तंजानिया के सेरेंगती राष्ट्रीय उद्यान और नामीबिया के जंगलों में गिने-चुने चीते हैं. प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है. जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट को मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो गए थे. अब केवल 7100 चीते पूरी दुनिया में बचे हैं.
पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं इनके स्वाभाविक जीवन को अंतत: बुरी तरह प्रभावित करती हैं. चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नई जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं.