प्रभात झा का ब्लॉगः गांवों के बचने से ही बचेगी भारत की संस्कृति
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 7, 2020 02:22 PM2020-05-07T14:22:15+5:302020-05-07T14:22:15+5:30
जीवन हो, समाज हो, संस्था हो या राष्ट्र हो; इन सभी में प्रारंभ से ही उतार-चढ़ाव आते रहे हैं. कोरोना वैश्विक महामारी भी इसी तरह की एक घटना है. सुघटना हो या दुर्घटना, दोनों के ही दो पहलू पाए जाते हैं. एक सकारात्मक, एक नकारात्मक. कोरोना का नकारात्मक पक्ष है कि वह मानव का जीवन समाप्त कर रहा है. वहीं, उसका दूसरा पक्ष है कि कोरोना के कारण शहरों में रहने वाले परदेशी लोगों को गांव की बहुत याद आ रही है. ग्रामीण परिवेश से निकलकर भारत के भिन्न-भिन्न शहरों एवं बड़े-बड़े महानगरों में जीविकोपार्जन करने के लिए जाने वाले गांव भूल गए और आज उन्हें सबसे ज्यादा गांव की याद आ रही है. वैश्विक महामारी कोरोना का संदेश है कि गांव और शहर के बीच में सदैव संतुलन रहना चाहिए. जैसे संतुलित आहार शरीर को स्वस्थ रखता है, वैसे ही गांव और शहर का संतुलन रहने से ही भारत की संस्कृति भी बचेगी और प्रगति भी होगी.
भारत के गांव अंग्रेजी राज से हजारों वर्ष पहले वैदिक काल में भी हर तरह से प्रतिभासंपन्न थे. ऋषि और कृषि की भूमि भारत की ग्राम्यसभ्यता और संस्कृति की विश्व में धाक थी. ज्ञान और प्रतिभा के मामले में शिखर पर था यह. महात्मा गांधी ने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में भारतीय गांवों का चित्न खींचते हुए भारतीय ग्राम संस्कृति को विश्व संस्कृति बताया था. उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘अगर गांव नष्ट होता है तो भारत भी नष्ट हो जाएगा, भारत किसी मायने में भारत नहीं रहेगा.’ उन्होंने सच ही ‘गांव को भारत की आत्मा’ कहा था. उनका मानना था कि न केवल भारत बल्कि विश्व व्यवस्था का उज्ज्वल भविष्य गांवों पर निर्भर करता है.
लेकिन आजादी के बाद दशकों तक ऐसी सरकारी नीति रही कि शहर फैलता गया गांव सिमटता गया. फैलता शहर गांव को निगलता गया. शहर अमीर हो गया, गांव गरीब हो गया. शहर खानेवाला, जबकि गांव उगानेवाला बनकर रह गया. शहर की स्वार्थी सभ्यता ने गांव को गुलाम बना दिया. शहरी लालच में गांव वीरान होने लगा. किसी ने सुध न ली. न सरकारों ने, न व्यक्ति ने और न समाज ने. दुष्परिणाम सामने है. 1951 में भारत की 83 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी, जो आज घटकर 69 प्रतिशत रह गई है. गांव समृद्ध हो, इसकी न नीयत रही है और न नीति. 1951 में गांव का बजट कुल बजट का 11.4 प्रतिशत था, 1960-61 में 12 प्रतिशत, 1970-71 में 9.5 प्रतिशत, 1980-81 में 10.9 प्रतिशत, 1990-91 में 10.8 प्रतिशत और 2000-01 में 9.7 प्रतिशत तथा 2019-20 में 9.83 प्रतिशत. वहीं 1970-71 में देश के कुल कार्यबल का 84 प्रतिशत गांवों में था, जो 1980-81 में घटकर 80.8 प्रतिशत, 1990-91 में 77.8 प्रतिशत, 2010-11 में 70.9 प्रतिशत और वर्तमान में घटकर लगभग 70 प्रतिशत रह गया है. देश के 70 प्रतिशत कार्यबल के लिए 10 प्रतिशत से भी कम बजट. ऐसे में गांव की समृद्धि में अभिवृद्धि कैसे हो सकती है? ग्राम स्वराज्य का सपना कैसे पूरा हो सकता है?
वैश्विक महामारी कोरोना से उत्पन्न चुनौतियों के इस दौर में 24 अप्रैल 2020 को पंचायती राज दिवस के मौके पर प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने देश के 31 लाख पंचायत प्रतिनिधियों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए कहा कि ‘कोरोना संकट ने देश को और उन्हें बहुत सिखाया है और जो सबसे बुनियादी बात सिखाई है वो है -आत्मनिर्भर होना.’ ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का जिक्र उन्होंने वजन डालने के लिए तीन बार किया. लेकिन सच यह भी है कि गांव आत्मनिर्भर होगा तब ही भारत आत्मनिर्भर बनेगा.
गांव की समृद्धि ही भारत की समृद्धि है. वैश्विक महामारी कोरोना से आज विश्व का हर राष्ट्र हिल गया है. उसके इलाज के लिए वैक्सीन की खोज में पूरा विश्व लगा हुआ है. अनेक संस्थाएं जो गांव आधारित सर्वे और विश्लेषण करती हैं, उनकी मान्यता है कि कोरोना से भारत अभी भी काफी हद तक इसलिए बचा है क्योंकि अधिकांश आबादी गांवों में बसती है. वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों का भी यही कहना है. गांवों में शुद्ध जल है, शुद्ध हवा है, पेड़ हैं, पौधे हैं, नदी है, सरोवर है, पर्वत है, खेत है, खलिहान है. लेकिन शहरों-महानगरों ने प्रकृति के पांचों महाभूतों क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर धावा बोलकर क्षतिग्रस्त कर दिया है. गांव, खेत, खलिहान, वन, उपवन की छाती चीरते शहर सीमेंट-कांक्रीट की बेतरतीब इमारतें लेकर दैत्यकार फैल रहे हैं. गंदे नाले, खराब जल, प्रदूषित हवा के कारण शहर-महानगर महामारी का शिकार हो रहे हैं. कारण है, गांवों से शहरों में अनियोजित पलायन. 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 45.36 करोड़ अंतर्राज्यीय प्रवासी हैं जो देश की कुल जनसंख्या का 37 प्रतिशत हैं. वहीं हाल के आर्थिक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि शहरों में प्रवासी कार्यबल की आबादी 10 करोड़ (20 प्रतिशत) से अधिक है. केवल दिल्ली और मुंबई में यह आबादी लगभग 3 करोड़ है. 2019 में किए गए एक अध्ययन की मानें तो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता महानगर और हैदराबाद, बंेगलुरु जैसे देश के बड़े शहरों की 29 प्रतिशत आबादी दैनिक मजदूरों की है.
कोरोना महामारी के इस काल में लोगों में आतुरता बढ़ी है और सहज कहने लगे हैं - चलो गांव की ओर. पूरे देश को खिलाने की ताकत गांवों में है. इसी ताकत के कारण कोरोना महामारी में भारत आज बचा है. सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक, पारिवारिक और नातेदारी की वैदिक परंपरा आज भी गांव में है. यह ताकत भारत के गांवों में है. इसी ताकत के कारण भारत आज बचा है. गांव ने धर्म नहीं छोड़ा, हमने छोड़ा है. गांव के आंचल में सबके लिए जगह होती है. हम भूल गए थे गांव को, मां को. पर मां कभी नहीं भूलती.