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ब्लॉग: रूस-यूक्रेन जंग में सकारात्मक मोड़ और भारत, सऊदी अरब में बैठक से निकलेगा शांति का रास्ता?

By राजेश बादल | Updated: August 1, 2023 09:44 IST

जंग की खबरों के बीच राहत पहुंचाने वाले कुछ संकेत भी इस सप्ताह मिले हैं. अगस्त के पहले सप्ताह में सऊदी अरब की पहल पर एक शांतिवार्ता होने जा रही है. इसमें भारत की भूमिका अहम हो सकती है.

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समीकरण बदल रहे हैं. रूस और यूक्रेन के बीच जंग अपने आखिरी और खतरनाक मोड़ पर पहुंच रही है और दोनों राष्ट्रों से मिल रही खबरें भी चिंता जगाती हैं. परदेसी मदद से लड़ रहे यूक्रेन के तेवर बेहद आक्रामक हो गए हैं. दूसरी ओर रूस भी बौखलाया हुआ है. अब वह अपने सर्वाधिक घातक हथियारों का उपयोग करने जा रहा है. 

असल में यह लड़ाई अब इस स्थिति में पहुंच गई है, जब विश्व बिरादरी का दखल अनिवार्य हो गया है. दोनों राष्ट्र अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने की स्थिति में आ चुके हैं. लेकिन जंग की खबरों के बीच राहत पहुंचाने वाले कुछ संकेत भी इस सप्ताह मिले हैं. अगस्त के पहले सप्ताह में सऊदी अरब की पहल पर एक शांतिवार्ता होने जा रही है. इसमें तीस देश हिस्सा ले रहे हैं. भारत भी इनमें से एक है. हम आशा कर सकते हैं कि इस बैठक से युद्ध की समाप्ति का फॉर्मूला निकल आएगा.

वैसे तो दोनों मुल्कों के बीच सऊदी अरब की सुलह की कोशिशें लंबे समय से चल रही हैं. उसके साथ यूक्रेन भी अपने को सहज पाता है और रूस भी. हालांकि जेद्दाह में होने वाले इस शिखर सम्मेलन में  रूस हिस्सा नहीं ले रहा है. वह सऊदी अरब पर इतना भरोसा कर सकता है कि उसके हितों की हिफाजत हो जाए. तेल उत्पादन के क्षेत्र में दोनों देश अभी भी मिलकर काम कर रहे हैं. सऊदी अरब तथा रूस की तेल-दोस्ती पर अमेरिका कई बार आपत्ति जता चुका है. 

दूसरी तरफ यूक्रेन और सऊदी अरब के बीच भी भरोसे की मजबूत दीवार है. सऊदी अरब ने इसी साल यूक्रेन को 400 मिलियन डॉलर की मदद भी पहुंचाई है. वह संयुक्त राष्ट्र में इस जंग को समाप्त करने वाले प्रस्ताव का समर्थन भी कर चुका है. इसी कारण से बैठक में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की पहुंच रहे हैं. सऊदी अरब इसमें रूस को अभी आमंत्रित नहीं कर रहा. शायद वह इस शिखर बैठक के बाद रूस को मनाने का एक अवसर अपने पास रखना चाहेगा. 

बड़े देशों में भारत के अलावा ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी जेद्दाह शांति सम्मेलन में भाग ले रहे हैं. कुछ समय पहले जेद्दाह में अरब लीग समिट हो चुकी है. इसमें जेलेंस्की को खासतौर पर बुलाया गया था. जेलेंस्की ने अपने देश के लिए अरब देशों से खुले समर्थन की अपेक्षा की थी.

आपको याद होगा कि पिछले महीने दक्षिण अफ्रीका की पहल पर सारे अफ्रीकी देशों ने इस जंग को खत्म करने के लिए शांति प्रस्ताव तैयार किया था. प्रस्ताव तैयार करने वाले देशों में मिस्र, सेनेगल, जाम्बिया, युगांडा और कांगो जैसे राष्ट्रों के प्रमुख शामिल थे. लेकिन इसमें रूस के जीते हुए क्षेत्रों को वापस लौटाने की बात शामिल नहीं थी. यूक्रेन के राष्ट्रपति ने इसलिए इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था. 

जेलेंस्की ने कहा था कि युद्ध तभी समाप्त हो सकता है, जब यूक्रेन से छीनी गई सारी जमीन रूस लौटा दे. उनका कहना था कि शांति प्रस्ताव बेतुका है और बिना उसे भरोसे में लिए हुए तैयार किया गया है. इस तरह यह शांति प्रस्ताव बिना चर्चा के ही समाप्त हो गया.

अफ्रीकी देशों के शांति प्रस्ताव से पहले चीन ने भी एक फॉर्मूला पेश किया था. यह फॉर्मूला युद्ध का एक साल पूरा होने पर रखा गया था. चीन के इस प्रस्ताव में बारह मुख्य बिंदु थे. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को यह पसंद आया था. मगर यूक्रेन को यह नहीं जमा था क्योंकि इसमें भी रूस के द्वारा जीते गए इलाके यूक्रेन को वापस करने का कोई जिक्र नहीं था. 

यूरोप के मुल्क इसे  स्वीकार करते तो पुतिन से बात आगे बढ़ाई जा सकती थी. पर उस प्रस्ताव को न तो अमेरिका ने पसंद किया और न ही यूरोपियन देशों को रास आया. चीन के बारह बिंदुओं में खास थे-दोनों राष्ट्र एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करेंगे, न्यूक्लियर संयंत्रों की रक्षा की जाएगी, जंग से तबाह क्षेत्रों का साझा पुनर्निर्माण, उद्योग और उत्पादन की टूटी कड़ियों को जोड़ा जाएगा, शीतयुद्ध की मानसिकता छोड़ी जाएगी, नागरिकों और युद्धबंदियों की हिफाजत की जाएगी और अनाज निर्यात को आसान बनाया जाएगा. 

गौरतलब है कि इसमें यूक्रेन के नाटो की सदस्यता लेने वाला बिंदु नदारद था, जिसकी वजह से रूस ने पहला आक्रमण किया था. इसका अर्थ यह भी निकलता है कि रूस अब यह जिद छोड़ने पर राजी हो गया है. उसने इस बारह सूत्री योजना को पसंद भी किया था. गतिरोध खत्म करने की दिशा में यह बड़ा कदम माना जा सकता है. इस पर नाटो देशों को सकारात्मक रवैया अपनाना चाहिए था. उन्होंने ऐसा नहीं किया. 

रूस और यूक्रेन के बीच इस सदी की अब तक की सबसे लंबी जंग रोकने के लिए तुर्की ने भी अपनी ओर से एक पहल की थी, पर उसमें सिर्फ अनाज व्यापार को बिना बाधा के करने पर सहमति बन पाई थी. इसके आगे बात नहीं बढ़ी थी. शुरुआती दिनों में भारत ने भी एक प्रयास किया था. मगर उस प्रयास की अधिक जानकारी विश्व को नहीं मिल सकी.

भारत ने रूस की वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के लिए उसके संकट काल में भरपूर तेल खरीदा है और उसे अलग-अलग रूपों में बदलकर निर्यात भी किया है. भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा वाले किसी प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया है. पर अमेरिकी रिश्तों के मद्देनजर वह रूस के निकट भरोसे वाली उस सूची में नहीं है, जिसमें चीन शामिल है. चीन और रूस के बीच का भी अतीत बेहद कड़वा है, मगर वह भारत की तुलना में चीन पर ही दांव लगाना चाहेगा. 

फिर भी जेद्दाह की शिखर वार्ता में भारत के रहने से रूस और यूक्रेन दोनों ही असहज नहीं हैं. तमाम मतभेदों के बावजूद चीन और भारत अपने-अपने कारणों से रूस का साथ देना चाहेंगे.

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