डॉ. एसएस मंठा का ब्लॉलः चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में राजनीतिक दल

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 18, 2019 08:32 AM2019-01-18T08:32:50+5:302019-01-18T08:32:50+5:30

2014 के चुनाव में विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा क्या 2019 में इसकी पुनरावृत्ति कर सकेगी? उसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को अन्य छोटे-बड़े दलों के साथ मिलकर चुनाव में उतरने की जरूरत है. वर्तमान में वह चुनाव में अकेले टक्कर देने की स्थिति में नहीं है.

Political parties are searching the issues for lok sabha elections | डॉ. एसएस मंठा का ब्लॉलः चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में राजनीतिक दल

डॉ. एसएस मंठा का ब्लॉलः चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में राजनीतिक दल

डॉ. एसएस मंठा

वर्ष 2019 में पदार्पण करने के साथ ही देश में नए समीकरण बनने शुरू हो गए हैं, क्योंकि आम चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं. भाजपा को जहां फिर से सत्ता में आने की उम्मीद है, वहीं कांग्रेस अपने गंवा चुके स्थान को पुन: वापस पाने की इच्छुक है. दोनों ही पक्ष बेहतर प्रशासन देने का वादा कर रहे हैं.

2014 के चुनाव में विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा क्या 2019 में इसकी पुनरावृत्ति कर सकेगी? उसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को अन्य छोटे-बड़े दलों के साथ मिलकर चुनाव में उतरने की जरूरत है. वर्तमान में वह चुनाव में अकेले टक्कर देने की स्थिति में नहीं है. भाजपा की स्थिति हालांकि अपेक्षाकृत बेहतर है, लेकिन उसे भी छोटे दलों की मदद की जरूरत है. कौन किसके साथ जाएगा, यह पूरी तरह से चुनावों की घोषणा होने के बाद ही तय होगा. 

वर्तमान में कई नए घटकों के राजनीतिक वातावरण में प्रवेश करने से चुनाव नतीजों पर असर पड़ सकता है. किसानों की समस्याओं को लेकर अलग-अलग राजनीतिक दल अलग-अलग समाधान सुझा रहे हैं. कजर्माफी, फसल बीमा योजना सहित किसानों के खाते में पैसे जमा कराने से लेकर युवाओं को रोजगार देने जैसी बातें कही जा रही हैं. साथ ही वस्तु व सेवाकर (जीएसटी) की वजह से महंगाई बढ़ने से लेकर नोटबंदी के छोटे उद्योगों पर पड़े असर तक की बातें उठाई जा रही हैं. एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाने के मामले बढ़ रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में चुनौती देने वाले नेताओं के मजबूत विपक्षी दल के रूप में उभरने से सत्ताधारियों के लिए मुकाबला कड़ा हो गया है. 

अनेक विपक्षी पार्टियां एकजुट हो रही हैं और उनमें से कुछ का एकमात्र उद्देश्य सत्तारूढ़ नेता को सत्ता से हटाना है. सत्ता के खेल में सत्तारूढ़ दल ने अपने कई मित्रों को गंवाया है. लेकिन राजनीतिक दलों में अंतर्विरोध होने और पार्टी नेताओं के महत्वाकांक्षी होने के बावजूद सत्ता की डोर उन्हें एकजुट रखे हुए है.

भाजपा के विरोध में एकजुट होने वाले दलों में भिन्नता होने के बावजूद उनमें भाजपा विरोध की साम्यता है. हालांकि कमजोर होने से उनमें जाति और धर्म के आधार पर फूट डालना भाजपा के लिए संभव है. इसलिए जातिभेद और धर्मभेद को एक तरफ रखकर ही भाजपा को निर्णायक तौर पर पराजित करना विपक्ष के लिए संभव हो सकता है.

हाल ही में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों से उत्साहित कांग्रेस ने विपक्ष को एकजुट करने के लिए पहल की है. उसने धर्मनिरपेक्ष बेहतर प्रशासन, संस्थागत सुधार, सभी के लिए रोजगार, कामकाज में पारदर्शिता जैसे सर्वस्वीकार्य कदम उठाने की घोषणा की है. इसके विपरीत भाजपा हिंदुत्व की जमीन पर खड़ी है. उसके कामकाज में इसका प्रतिबिंब देखने को मिलता है. इसके बरअक्स विपक्ष ने किसानों की तकलीफों और बेरोजगारी के मुद्दे को प्रमुखता दी है. इससे विरोधियों की राजनीतिक परिपक्वता देखने को मिलती है. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं. 

राफेल का विवाद हाल के दिनों में बढ़ता दिखाई दिया है. इसके अलावा आर्थिक अपराधियों को देश से पलायन करने का मौका किसने दिया बनाम एनपीए किसके काल में बढ़ा, का मुद्दा भी है. भ्रष्टाचार वैश्विक चर्चा में है, लेकिन जहां लोगों को इस बात की चिंता हो कि अगले वक्त का खाना कैसे जुटेगा, वहां चुनाव दर चुनाव भ्रष्टाचार का मुद्दा लोगों को कितना आकर्षित कर सकता है? राजनीतिक दल अगर वास्तव में लोगों की भलाई के लिए काम करना चाहते हैं तो उन्हें इस मुद्दे पर पार्टीगत स्वार्थो से ऊपर उठकर काम करना होगा.

फेक न्यूज निश्चित रूप से लोकसभा चुनावों पर असर डालने वाला एक प्रमुख मुद्दा रहेगा. अमेरिका के चुनावों में रूस के लोगों ने फेक न्यूज के माध्यम से असर डालने का प्रयास किया था. भारत जैसे देश में, जहां अनेक लोग रोज 50 रुपए भी नहीं कमा पाते, फेक न्यूज फैलाने वालों के लिए पैसे के बल पर उन्हें माध्यम बनाना आसान हो सकता है. ऐसे में नैतिकता का प्रश्न कहां उठेगा?

आगामी चुनाव में कोई कैसा भी मार्ग अपनाए, यह तय है कि उसकी यात्र आसान नहीं होने वाली है. राष्ट्रीय संस्थाओं और संवैधानिक संस्थानों को पहले ही बहुत नुकसान पहुंच चुका है. लोगों में अविश्वास और संशय का वातावरण बनाकर राजनेता लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. धार्मिक भावनाओं को भड़काया जाता है और दूषित पूर्वाग्रहों को प्रोत्साहन दिया जाता है. लेकिन आत्मनिरीक्षण करने का प्रयास कोई नहीं करता. जबकि हमारे देश के बहुधार्मिक स्वरूप को स्वीकार करके ही लोगों में विश्वास की भावना निर्मित की जा सकती है और देश को आगे बढ़ाया जा सकता है. इसके लिए सभी को तात्कालिक स्वार्थो पर ध्यान न देते हुए दीर्घकालिक दृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है.

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