आलोक मेहता का ब्लॉगः मीडिया और जजों पर राजनीतिक हमले

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 17, 2019 08:16 AM2019-01-17T08:16:58+5:302019-01-17T08:16:58+5:30

अदालत के फैसलों की आलोचना के अधिकार का उपयोग होता रहा. लेकिन हाल के महीनों में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायाधीश पर व्यक्तिगत हितों, राजनीतिक पूर्वाग्रह तक के गैरजिम्मेदाराना अनर्गल आरोप लगाए जाने लगे हैं.

Political attacks on media and judges in india | आलोक मेहता का ब्लॉगः मीडिया और जजों पर राजनीतिक हमले

आलोक मेहता का ब्लॉगः मीडिया और जजों पर राजनीतिक हमले

आलोक मेहता

आजादी के बाद यह पहला दौर है, जबकि प्रमुख राजनीतिक दल और नेता पारस्परिक संघर्ष के साथ चुन-चुनकर मीडिया तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक पर राजनीतिक हमले कर रहे हैं. पहले कुछ अतिवादी संगठन यदा-कदा संपादक, संवाददाता या मीडिया संस्थान पर पूर्वाग्रह, पक्षपात या भ्रष्ट होने के आरोप लगा देते थे. 

अदालत के फैसलों की आलोचना के अधिकार का उपयोग होता रहा. लेकिन हाल के महीनों में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायाधीश पर व्यक्तिगत हितों, राजनीतिक पूर्वाग्रह तक के गैरजिम्मेदाराना अनर्गल आरोप लगाए जाने लगे हैं. ऐसा भी नहीं है कि ऐसी आरोपबाजी को किसी दल के दो-चार नेताओं की ओर से की गई निजी टिप्पणी कहा जा सके. पार्टी नेतृत्व द्वारा सोची समझी रणनीति के तहत न्यायाधीशों और वरिष्ठ मीडिया कर्मियों, सामाजिक-आर्थिक मामलों के विशेषज्ञों पर पूर्वाग्रह के आरोपों सहित अपमानजनक टिप्पणियों की बौछार करवाई जा रही है.

यों 2013-14 के अन्ना आंदोलन, आम आदमी पार्टी और कुछ राजनेताओं ने गंभीर निजी अर्ध सत्य या मनगढ़ंत आरोपों के अभियान चलाए थे. फिर टेलीविजन के समाचार चैनलों पर राष्ट्रीय या प्रादेशिक चैनलों में भी उत्तेजक आरोपबाजी को प्रोत्साहन मिलने लगा. पिछले कुछ महीनों के दौरान राजनीतिक दलों के प्रचार विभाग प्रमुखों के निर्देशों पर प्रवक्तागण किसी गंभीर विषय पर तर्को के बजाय एक-दूसरे के निजी जीवन-विचार पर आरोप लगाने के बाद मारपीट की मुद्रा में झपटने लगे. इसमें कोई कसर रह गई तो कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता या भागीदार पत्रकार पर निजी आरोप मढ़ने लगे. 

राजनेताओं के आरोपों के समर्थन या विरोध में नामी वकील कानूनी मैदान में उतर गए. नगरपालिका, नगर निगम, ग्राम पंचायत, विधानसभा, संसद, प्रधानमंत्री, केंद्रीय चुनाव आयुक्त, प्रतिष्ठित संपादक-पत्रकार, लेखक और न्यायाधीश को भी यदि इसी तरह विवादों के कठघरे में खड़ा किया जाता रहा, तो लोकतंत्र के किस दरवाजे पर सही निर्णय-न्याय की उम्मीद रह जाएगी? मंदिर-मस्जिद को लेकर दशकों से चली आ रही कानूनी लड़ाई भी धीरे-धीरे अति सांप्रदायिक राजनीति का हिस्सा बन चुकी है.  

यदि संसद, चुनाव आयोग, न्याय पालिका की साख ही नष्ट कर दी जाएगी तो क्या गिरोहों में शक्ति प्रदर्शन और प्रयोग से समाज की दिशा तय होगी? इससे क्या अराजकता और अलोकतांत्रिक व्यवस्था को आमंत्रण नहीं मिलेगा? एक-दूसरे के वैचारिक मतभेदों का मतलब व्यक्तिगत दुश्मनी कैसे हो सकता है? जहां दुनिया के संपन्न विकसित देश भारत के लोकतंत्र और सफलताओं की प्रशंसा करने लगे हैं, वहीं हम अपने ही मुंह पर कालिख पोतकर कौन सी सफलता पा सकते हैं?

Web Title: Political attacks on media and judges in india

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