गोपालदास नीरज को मुनव्वर राणा की श्रद्धाजंलि: अब तेरे शहर से हम लौटकर घर जाते हैं...

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 20, 2018 06:02 AM2018-07-20T06:02:04+5:302018-07-20T06:02:04+5:30

कवि और गीतकार गोपालदास नीरज का 19 जुलाई को 93 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। नीरज के एक दर्जन से ज्यादा कविता संग्रह प्रकाशित थे। मेरा नाम जोकर, प्रेम पुजारी, शर्मिली जैसी कई मशूहर फिल्मों के लिए उन्होंने गीत लिखे। साहित्य और सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया था।

Poet Munawwar Rana pay tributes to poet and lyricist gopaldas neeraj passed away | गोपालदास नीरज को मुनव्वर राणा की श्रद्धाजंलि: अब तेरे शहर से हम लौटकर घर जाते हैं...

गोपालदास नीरज को मुनव्वर राणा की श्रद्धाजंलि: अब तेरे शहर से हम लौटकर घर जाते हैं...

मुनव्वर राणा

अपने बेतरतीब और उलझे हुए बालों को संवरने की कशमकश में उलझाए, आंखों में कई सदियों की थकन और रतजगे छुपाए, अपने उतरे हुए चेहरे पर मोहब्बत की नाकामी की भभूत मले, सिगरेट और जलती-बुझती बीड़ियों के निकोटिन से फेफड़ों को दागदार करता हुआ, वक्त के चलते-फिरते स्क्रीन पर जिंदगी की रंग-बिरंगी तस्वीरें देखता हुआ, मौसम की बेरहमी का मजाक उड़ाता हुआ, लड़कपन को जवान होते, देहातों को शहरों में बदलते और बुढ़ापे को श्मशान की तरफ बढ़ते देखता हुआ, सुबह के आसार नुमायां होते ही बोझल कदमों से धीमे सुरों में गुनगुनाता हुआ, शराबखाने की हाव-हू से निकलकर इंतिजार की दहलीज पर बैठी हुई खौफनाक तन्हाई की उजड़ी हुई मांग में जिंदगी का सिंदूर भरने के लिए यह जो शख्स चला जा रहा है, यह गोपाल दास नीरज है.

कभी अपनी महरूमियों पर इतना रोया कि सावन शर्मिदा हो गया. कभी अपनी उदासी पर इतना हंसा कि कैदखानों की दीवारें हिल गईं. शराब में अपने गमों को इतना घोला कि वो बेअसर हो गईं. आवारगी को इतनी रफ्तार सौंप दी कि मंजिलें रेल से गुजरते हुए दरख्तों की तरह मिलती और बिछड़ती गईं. बेवफाइयों के अवराक (पन्नों) पर इतने बोसे टांक दिए कि उसे अय्याशी की सनद और एतबाल हासिल हो गया. किसी से बिछड़ने का इंतिकाम सारी जिंदगी मील के पत्थरों से लेने का इरादा कर लिया, वो चलता रहा और सिर्फ चलता रहा. उर्दू वाले पूछते हैं कि तुम कवि हो या शायर, तो वह हंसते हुए कहता है ‘मैं कवि हूं’ और जब हिन्दी वाले यही सवाल दोहराते हैं तो वो पूरे एतमाद (विश्वास) के साथ कहता है ‘मैं शायर हूं.’ वह अपनी तरंग में कुछ और आगे बढ़ता है तो मजहबी ठेकेदार उसको घेर लेते हैं और उसका मजहब पूछते हैं. वह सिसकियां लेते हुए कहता है कि मैं सिर्फ इंसान हूं, इंसान पैदा हुआ हूं और इंसान की तरह मरूंगा भी! 

नीरज साहब ने फूलों की तरह जमीन से जो कुछ और जितना हासिल किया उससे ज्यादा उसे लौटा दिया. उनकी शख्सियत देहातों से गुजरती उस साफ-सुथरी नदी की तरह है, जिसका शफ्फाफ (निर्मल) पानी मंदिर और मस्जिद दोनों के घड़ों और सुराहियों में रखा जा सकता है. उस नदी के किनारे मुख्तलिफ मजहबों के लोग बैठकर एक दूसरे से मोहब्बत करना और एक दूसरे की अकीदतों से मोहब्बत करना सीखते हैं. उस नदी के किनारे बैठकर नई उम्र के कवि और शायर गीत और दोशीजये गजल लिए खूबसूरत घरौंदे बनाते हैं, उन घरों में रौशनी के लिए मुख्तलिफ भाषाएं अपने जुगनू जैसे शब्दों की कहकशां बिछा देती हैं. गांवों, कस्बों और शहरों की पहचान उसी नदी से होती है. उसी नदी की बदौलत वहां पर बसने वालों को इज्जत और एहतराम की निगाह से देखा जाता है. गोपाल दास ‘नीरज’ भी ऐसी ही किसी नदी की तरह चुपचाप बहते हुए जिंदगी के उस मोड़ पर आ पहुंचे हैं, जहां पहुंच कर नदियां दरियाओं के रास्ते समंदरों में हमेशा के लिए गुम हो जाती हैं. 

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गोपाल दास ‘नीरज’ की रचनाओं में गजल भी है गीत भी, छंद भी है मुक्तक भी. उनकी कविता मधुरता, सुंदरता और सरलता का एक ऐसा संसार अपने शब्दों में छिपाए रहती है, जिसको महसूस करते हुए दिल की धड़कनों की लय तेज हो जाती है. वह शायरी और कलन्दरी के उस मुकाम पर खड़े हैं जहां शब्द खुद चल कर आते हैं और उनसे उठने और बैठने का सलीका सीखते हैं. यह हुनर दो-चार बरस में कभी हासिल नहीं होता. यह तो संस्कारों की तरह है, एक उम्र की रियाजत (कठिन तपस्या) मांगता है. संस्कार भी मां की छाती से उबलते हुए दूध की तरह नई नस्लों में मुन्तकिल (स्थानांतरित) होते रहते हैं. सिर्फ ‘नीरज’ नाम रख लेने से कोई गोपाल दास नहीं हो सकता और न गोपाल दास नाम रख लेने से कोई शख्स ‘नीरज’ हो सकता है. गोपाल दास ‘नीरज’ होने के लिए मंदिर और मस्जिद के दरम्यान पुल बनना पड़ता है. एक तहजीबी पुल का नाम गोपाल दास ‘नीरज’ है.   गोपाल दास ‘नीरज’ होने के लिए वह ग्वाला बनना पड़ता है जो दंगे के जमाने में सिर्फ भूख से बिलखते नन्हें बच्चों की तस्वीरें अपनी दूध की बाल्टी में देखता रहता है.  

गोपाल दास ‘नीरज’ की देवमालायी शख्सियत को सिर उठाकर देखने में हमेशा तन्कीद निगारों (आलोचकों) के सिरों की पगड़ियां गिर गईं हैं. मजे की बात तो यह है कि हिन्दी तन्कीद के साहित्यिक अवतार तो ‘नीरज’ साहब के हमेशा मुखालिफ ही रहे लेकिन उनकी उम्मतें (अनुयायी) हमेशा ‘नीरज’ साहब की तरफदार रही हैं. चाहने वालों की दौलत से सरशार, ‘नीरज’ साहब ने कभी चाहे जाने की तमन्ना करने वालों को शिकायत का मौका नहीं दिया. वो गालिब के मिस्रे ‘गालियां खा के बेमजा न हुआ’ की तरह जिन्दगी के रास्तों से अपनी तरंग में गुजरते रहे. गोपाल दास ‘नीरज’ ने अपनी जिन्दगी कस्तूरी की नाफ से धागे की तरह गुजारी. वह अपने सुनने, पढ़ने और चाहने वालों में अपनी शायरी की खुशबू बांटने में हमेशा इतने मसरूफ रहे कि उन्हें अपनी उम्र और दुश्मनों की तादात का एहसास तक नहीं हुआ.

आमतौर से लोग भरपूर जिन्दगी गुजारने का जो मतलब निकालते हैं, वह मतलब शायर की जिन्दगी से बिल्कुल मेल नहीं खाता. शायर के यहां जिन्दगी का मतलब दूसरों का गम महसूस करना, उसे अपने सीने में मुद्दतों पालना, फिर अपना खूने जिगर पिलाकर उसे शायरी के सांचे में ढालना होता है. यह दुश्वार तरीन काम हमारे समाज के बहुत से जिम्मेदार हजरात मिलकर भी नहीं कर पाते लेकिन एक शायर ऐसे मुश्किल काम को तने तनहा करता है. गोपाल दास ‘नीरज’ ने सारी जिन्दगी आंसुओं पर अपनी फकीराना मुस्कुराहट का पर्दा डाले रखा और लफ्जों के मोतियों से ‘गीतिका’ और ‘गजलांजलि’ की तखलीक (रचना) करते रहे. अपने जख्मों पर मुस्कुराना और दूसरों के दुख पर आंखें भिगो लेने का हुनर गोपाल दास ‘नीरज’ से बेहतर इस अह्द में दूसरे किसी हिन्दी शायर का नसीब नहीं बन सका.

आठवीं दहाई ने अभी आंखें ही खोली थीं, जनवरी की कड़कड़ाती सर्दी का मौसम था, भोपाल से देहली जाने वाली किसी ट्रेन पर ‘वाली’ आसी साहब के साथ मैं भी सफर कर रहा था. ट्रेन के फस्र्ट क्लास कूपे में दाखिल होते ही ‘नीरज’ साहब और ‘वाली’ भाई से सलाम दुआ हुई. ‘नीरज’ साहब इंदौर से देहली लौट रहे थे. धुली धुलाई सफेद चादर पर साफ शफ्फाफ खादी का कुर्ता पाजामा पहने हुए नीरज साहब विराजमान थे. अटेन्डेन्ट उनके गिलास में सोडे और शराब को एक दूसरे से मिलाने में मसरूफ था. नीरज साहब ने हंसते हुए वाली भाई से कहा कि यार वाली भाई, आप सूफी के सूफी ही रह गये क्या शागिर्द को भी अपने नक्शेकदम पर चलाने का इरादा है? वाली भाई ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि यह तो मुझसे बड़ा सूफी है. थोड़ी देर तक कहकहे आपस में जाम की तरह टकराते रहे. नशे के साथ-साथ संजीदगी भी बढ़ने लगी. वाली भाई ने मुझसे नीरज साहब को गजल सुनाने के लिए कहा. गजल खत्म होते ही नीरज साहब ने कुछ और शेर सुनाने का हुक्म दिया. वाली भाई ने नीरज साहब से कहा कि मुनव्वर की नई किताब ‘पीपल छांव’ आ रही है, आप उसे चंद दुआइया जुमलों से तहरीरी तौर पर नवाज दीजिए. नीरज साहब ने एक हफ्ते के अंदर ही वाली भाई को ‘पीपल छांव’ के लिए एक मुख्तसर (संक्षिप्त) मजमून लिखकर भेज दिया.

नीरज साहब से यह मेरी पहली मुलाकात थी. उनकी शख्सियत की सेह्रकारी (जादूगरी) और उनकी तख्लीकी हुनरकारी से तो मैं बहुत पहले से वाकिफ था लेकिन उनके दीदार की दौलत से मेरी आंखें पहली बार मालामाल हो रही थीं. अपनी शोहरत और नामवरी से बेपरवाह नीरज साहब की कलंदरी मुङो बहुत अच्छी लगी. मैंने उनकी इस सादा मिजाजी की सलामती के लिए दुआएं मांगी और उनकी इस कलंदरी की थोड़ी सी राख लेकर अपने चेहरे पर मली. शायद मेरे चेहरे पर कलंदरी का नूर इसी राख की बदौलत है. 

जिन्दादिली के साथ जिंदा रहने का हुनर नीरज साहब से ज्यादा किसी को नहीं आता. इसी जमाने में कलकत्ता एयरपोर्ट पर नीरज साहब से मुलाकात हो गई. वह गालिबन (शायद) आई.आई.टी. खड़गपुर के कवि सम्मेलन से लौट रहे थे. मैंने उन्हें अदब से सलाम किया, उन्होंने पूछा क्या आप भी देहली चल रहे हैं? मेरे हां कहने पर फरमाया चलिए देहली तक आपका साथ रहेगा. मुङो तो देहली से वापस फिर अलीगढ़ की तरफ आना है. मैंने अपनी शोखी का तीर चलाते हुए कहा कि सर, बजाय देहली जाने के आपको अलीगढ़ में ही उतर जाना चाहिए. उन्होंने मुस्कुराते हुए फरमाया कि मियां, रात का वक्त होता तो मैं अंधेरे का फायदा उठाते हुए नशे के सहारे अलीगढ़ में ही उतर जाता. हम दोनों की बातों पर आसपास के लोग भी मजा लेते रहे. तीन-चार बरस पहले मिर्जा गालिब के सिलसिले में देहली के टाउन हाल में मुशायरा था. कड़ाके की सर्दी थी. मुशायरा खत्म होते ही नीरज साहब ने मुङो अपने पास बुलाया और कहने लगे कि तुम मेरी कार से चलोगे, मैं तुम्हें होटल छोड़ दूंगा, इसे मेरी मेहरबानी मत समझो, मैं तुम्हारे साथ जामा मस्जिद के किसी होटल में खाने के लिए चलना चाहता हूं. उन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें एक लालबत्ती गाड़ी दे रखी थी, हालांकि वह लालबत्ती वाली अपनी गाड़ी को भी बगैर बत्ती की लालटेन की तरह इस्तेमाल करते थे क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि रोशनी या रोशन जमीरी के लिए किसी लाल-पीली बत्ती की जरूरत नहीं होती. बकरीद करीब होने के सबब जामा मस्जिद के इलाके में बकरों की बोहतात थी. कोई साहब बहुत ही मोटा ताजा बकरा लिए हुए टहल रहे थे. वह भी माशाअल्लाह खाये पिये हुए थे. नीरज साहब बहुत देर तक यह दिलचस्प मंजर देखते रहे, फिर मुझ से आहिस्ता से पूछा, मुनव्वर भाई! इसमें बकरा कौन है? बढ़ती हुई उम्र और ढेर सारी बीमारियों के बावजूद शराब और शोखी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. देहली के किसी होटल में नीरज भाई ठहरे हुए थे, उनके रूम का दरवाजा खोलकर, अचानक एक खूबसूरत खातून दाखिल हुई लेकिन फौरन ही उन्होंने यह कहकर पलटना चाहा कि माफ कीजिएगा, मैं गलत कमरे में आ गई. नीरज साहब ने कहकहा लगाते हुए कहा कि मैडम, कमरा तो सही है लेकिन आप गलत उम्र में हमारे पास आई हैं. सच्चई तो यही है कि बढ़ती हुई उम्र और खतरनाक बीमारियों से बहादुरी के साथ जूझने का नाम ही गोपाल दास ‘नीरज’ है.

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लहजे में नर्मी, लफ्जों में बेसाख्तगी, गुफ्तगू में अपनापन, चेहरे पर शफकतों और शराफतों के फूल खिलाए वह जिधर से भी गुजर गए, जमाने का रुख भी उधर को हो गया. उन्होंने जिन्दगी और सरकारों से कभी किसी तरह का इनाम नहीं मांगा. उन्हें तो कभी अपने कास-ए-उम्मीद की तरफ देखने की फुर्सत ही नहीं मिली क्योंकि वह तो मुहब्बतें बांटने में इतने मसरूफ रहे कि उन्हें अंदाजा भी नहीं हुआ कि उम्र की धूप गौरैया की तरह उड़ कर मुंडेर पर बैठ चुकी है. फिल्मी दुनिया उन्हें ज्यादा रास नहीं आई क्योंकि इस सुनहरे पिंजरे में आजादी के ख्वाब की आंख खुल सकती थी. यूं भी कलंदरी कभी बादशाहत की तरफ मुंह करके इबादत नहीं कर सकती. कलंदरी तो नंगे पांव रेगिस्तानी में चलती है और शाम होते ही सूरज के साथ-साथ कहीं रूपोश हो जाती है.

दुनियावी एतबार से गोपाल दास ‘नीरज’ को वह सभी कुछ हासिल रहा    जिसका ख्वाब ही आंखों के लिए सुकूनबख्श होता है लेकिन हासिल होने वाले हर ओहदे, रुतबे और इनामात ने गोपाल दास ‘नीरज’ के दामन में पहुंच कर अपनी ही इज्जत में इजाफा किया, गोपाल दास नीरज को इन सरकारी तमाशों से कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही-

शम-ए-तन्हा की तरह सुबह के तारे जैसा, शहर में कोई नहीं होगा हमारे जैसा

(लेखक मशहूर शायर हैं।)

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