एकजुटता के बिना एशिया कैसे कर पाएगा 21वीं सदी का नेतृत्व? रहीस सिंह का ब्लॉग

By रहीस सिंह | Published: February 22, 2021 01:49 PM2021-02-22T13:49:24+5:302021-02-22T13:51:27+5:30

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एशिया के सभी देश को एकजुट होना होगा. विकास मिलजुल करना होगा. आतंक पर प्रहार करना होगा.

pm narendra modi india 21st century Asia world's fastest growing economic region most potential market Rahees Singh blog | एकजुटता के बिना एशिया कैसे कर पाएगा 21वीं सदी का नेतृत्व? रहीस सिंह का ब्लॉग

दुनिया की दूसरी, तीसरी और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एशिया के पास ही हैं.

Highlightsसाझी संस्कृत और विरासत से समृद्ध यह महाद्वीप परंपरागत संघर्षों से गुजरता रहता है?वैश्विक परिदृश्य में मौजूद मानवीय, आर्थिक व अन्य पक्षों को देखने से जो विशेष बात नजर आती है.दुनिया का 30 प्रतिशत भू-भाग और 4.299 बिलियन यानी दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी है.

18 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविड प्रबंधन पर पड़ोसी देशों की कार्यशाला को संबोधित करते हुए जो बात कही, उस पर वास्तव में विचार करने की जरूरत है.

ऐसा नहीं कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर के देश इस सत्य से परिचित नहीं होंगे लेकिन शायद वे इस सत्य के साथ आगे बढ़ने में प्राय: परहेज करते रहे हैं. सवाल उठता है कि क्यों? इस स्थिति में भी क्या इन देशों से अपेक्षा की जा सकती है कि ये प्रधानमंत्री के मंतव्य पर गंभीरता से विचार कर पाएंगे कि यदि 21 वीं सदी एशिया की है तो यह दक्षिण एशिया और हिंद महासागर के देशों की एकजुटता के बिना संभव नहीं हो सकती है?

प्रधानमंत्री के महत्वपूर्ण संदेश पर किसी को कोई संदेह तो हो नहीं सकता लेकिन यह प्रश्न अहम है कि आखिर एशिया जैसा समृद्ध महाद्वीप बाहरी आक्रांताओं, उपनिवेश वादियों और नवउपनिवेशवादियों की महत्वाकांक्षाओं का कुरुक्षेत्र क्यों बनाता रहा? शायद इसलिए कि ‘एकता के बाद भी एकता के अभाव’ से एशिया हमेशा ही गुजरता रहा है और आज भी गुजर रहा है. आखिर वह कौन सी वजह है कि साझी संस्कृत और विरासत से समृद्ध यह महाद्वीप परंपरागत संघर्षों से गुजरता रहता है?

वैश्विक परिदृश्य में मौजूद मानवीय, आर्थिक व अन्य पक्षों को देखने से जो विशेष बात नजर आती है वह प्राय: कई सवाल पैदा करती है. एशिया ग्लोब का सबसे बड़े भू-भाग के साथ-साथ दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला महाद्वीप है, इसके पास दुनिया का 30 प्रतिशत भू-भाग और 4.299 बिलियन यानी दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी है. यह दुनिया का सबसे तेज दर से आर्थिक विकास करने वाला क्षेत्र है और जीडीपी (पीपीपी) के आधार पर दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक महाद्वीप है. यही नहीं बल्कि दुनिया की दूसरी, तीसरी और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एशिया के पास ही हैं.

यानी एशिया दुनिया का सबसे तेज गति से उभरने वाला आर्थिक क्षेत्र और सबसे अधिक संभाव्यता (पोटेंशियल) वाला बाजार है, जो पूरी दुनिया के साथ निर्णायक सौदेबाजी कर सकता है. स्वाभाविक है, यदि एशिया के देश एकजुट हो जाएं तो न्यू वल्र्ड ऑर्डर में निर्णायक भूमिका ही नहीं निभा सकते बल्कि विश्वव्यवस्था का नेतृत्व भी कर सकते हैं. इस सत्य को जानने और समझने के बाद भी एशियाई देश एक साथ आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं तो इसलिए क्योंकि कुछ बाधाएं हैं.

पहली बाधा तो पश्चिम है. इसे हम कई तरीके से विेषित कर सकते हैं. प्रथम-पश्चिमी दुनिया यह कदापि नहीं चाहती कि एशियाई देश एकजुट हों इसलिए वे आधुनिक इतिहास के बड़े कालखंड में इन देशों में विभाजनकारी नीतियों को प्रश्रय देते रहे हैं ताकि ये कभी मजबूत न हो पाएं. द्वितीय- पश्चिमी श्रेष्ठता जैसे मिथक को वास्तविक मानने की प्रवृत्ति. अधिकांश एशियाई देश, उनके बुद्धिजीवी पश्चिम को श्रेष्ठ मानते रहे हैं इसलिए वे पश्चिमी नेतृत्व को स्वीकार कर लेते हैं.

लेकिन वे किसी भी स्थिति में एशिया के किसी देश को अपने से श्रेष्ठ मानना नहीं चाहते इसलिए वे उसके नेतृत्व को भी स्वीकार नहीं कर सकते. तीसरी बाधा एशियाई देशों की आपसी प्रतिस्पर्धा है. एशिया के अधिकांश देश स्वयं को बेहतर बनाने की बजाय दूसरे आगे बढ़ते या उभरते हुए देश की राह में निरंतर बाधा उत्पन्न करना चाहते हैं. उनकी संपूर्ण ऊर्जा इसी में खर्च होती है.

यहां पाकिस्तान का उदाहरण लिया जा सकता है. चौथी बाधा चीन जैसे महत्वाकांक्षी पीपल्स रिपब्लिक की साम्राज्यवादी नीतियां हैं. वह अपनी आर्थिक और सैनिक ताकत के बल पर दक्षिण चीन सागर पर अपना आधिपत्य जमाता है और इस क्षेत्र के देशों के साथ उपनिवेशों की तरह से व्यवहार करता है. एक अन्य बाधा चीन और जापान के मध्य भू-क्षेत्रीय विवाद है जिसमें सेंकाकू द्वीप समूह तथा तेल क्षेत्र शामिल है.

क्या चीन अपनी महत्वाकांक्षा पर नियंत्रण स्थापित कर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति के साथ आगे बढ़ सकता है? फिलहाल यदि ये देश इतिहास के कुछ अध्यायों को भुलाने की क्षमता विकसित कर लेते हैं और प्रतिस्पर्धी की बजाय सहयोगी बनते हैं तो एशिया 21वीं सदी को एक नई दिशा देने और उसका नेतृत्व करने में सफल हो सकेगा, अन्यथा नहीं. इसके लिए सबसे पहले युवा भारत और बूढ़े चीन व जापान को एक मंच पर आना होगा.

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