पहली नजर में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नजर आते हैं- एक राष्ट्रीय हस्ती हैं जो वैश्विक ध्यान आकर्षित कर रहे हैं, तो दूसरे एक क्षेत्रीय क्षत्रप हैं जो नाजुक गठबंधनों को संतुलित कर रहे हैं. फिर भी, गहराई से देखने पर, भारतीय राजनीति में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले इन दो नेताओं के बीच आश्चर्यजनक समानताएं उभर कर सामने आती हैं.
मोदी और नीतीश दोनों ने ही अपने करियर को व्यक्तिगत ईमानदारी की नींव पर खड़ा किया है. ऐसे दौर में जब भ्रष्टाचार के आरोपों ने कई राजनेताओं की छवि मलिन की है, दोनों में से किसी पर भी व्यक्तिगत रूप से रिश्वतखोरी का आरोप नहीं लगा है. उनकी ईमानदारी की प्रतिष्ठा राजनीतिक पूंजी बन गई है.
यही एक प्रमुख कारण है कि बदलते गठबंधनों और अशांत राजनीतिक परिदृश्य के बावजूद उनके संबंधित निर्वाचन क्षेत्र उन पर भरोसा करते रहते हैं. महत्वाकांक्षा दोनों को परिभाषित करती है. गुजरात के मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक का मोदी का सफर राजनीतिक दृढ़ विश्वास और तीक्ष्ण रणनीतिक समझ से प्रेरित एक अथक चढ़ाई को दर्शाता है.
नीतीश ने भी अदम्य महत्वाकांक्षा दिखाई है - चाहे भाजपा से नाता तोड़ना हो या उसके साथ वापस लौटना हो - और हमेशा बिहार के राजनीतिक गुरुत्व केंद्र को अपने इर्द-गिर्द बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित किया है. एक और साझा विशेषता नौकरशाही तंत्र और सावधानीपूर्वक चुनी गई टीमों पर उनका भरोसा है.
दोनों ही ऐसे भरोसेमंद अधिकारियों के साथ काम करना पसंद करते हैं जो उनकी शासन शैली को समझते हों और नीतियों को सटीकता से लागू करते हों. मोदी का पीएमओ चुस्त-दुरुस्त और वफादार माना जाता है, जबकि बिहार में नीतीश का प्रशासन लंबे समय से सेवारत नौकरशाहों के एक कैडर के माध्यम से चलता है जो उनके मन की बात जानते हैं.
सत्ता में उनका लंबा कार्यकाल - दोनों का 25 साल से ज्यादा - भारत के तेजी से बदलते लोकतंत्र में उनके राजनीतिक कौशल का प्रमाण है. ईमानदार, महत्वाकांक्षी, अनुशासित और गहन रणनीतिकार - नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी भले ही अलग-अलग राजनीतिक पदों पर हों, लेकिन कई मायनों में वे एक ही राजनीतिक सिक्के के दो पहलू हैं. एक और उल्लेखनीय समानता उनका व्यक्तिगत संयम है. दोनों नेताओं ने परिवार को आगे नहीं बढ़ाया. नीतीश के बेटे निशांत चुनाव से पहले थोड़े समय के लिए नजर आए थे. लेकिन जल्द ही वे परिदृश्य से गायब हो गए.
महाराष्ट्र में हर कोई एसआईआर चाहता है!
जब शेष भारत ‘ना’ कहता है, तो महाराष्ट्र ‘हां’ कहता है. देश भर में, राजनीतिक दल मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की चुनाव आयोग की योजना पर आपत्ति जता रहे हैं. लेकिन महाराष्ट्र में हर पार्टी, जिसके पास चुनाव चिह्न है, इसके लिए जोर लगा रही है.
चुनाव आयोग ने मतदाता सूचियों के राष्ट्रव्यापी शुद्धिकरण अभियान के तहत 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की घोषणा की, जिसमें महाराष्ट्र शामिल नहीं है. विडंबना यह है कि एसआईआर का सबसे जोरदार विरोध तीन बड़े विपक्ष शासित राज्यों : पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु से हुआ. लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी मांगों को नजरअंदाज कर दिया.
महाराष्ट्र की बात करें तो माहौल बिल्कुल अलग है. प्रतिद्वंद्वी उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे - जो अक्सर एक-दूसरे पर कटाक्ष करते रहते हैं - एक ही राग अलाप रहे हैं: मतदाता सूची दुरुस्त किए बिना चुनाव नहीं. यहां तक कि भाजपा के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस तथा उनके उपमुख्यमंत्री भी इससे सहमत हैं.
ऐसा लगता है कि एक बार फिर शिवसेना, भाजपा और कांग्रेस के गुटों में एक दुर्लभ आम सहमति बन गई है - हर कोई मतदाता सूची की दुरुस्ती चाहता है. सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि स्थानीय चुनाव जल्द हों, लेकिन एसआईआर के बिना यह कहना आसान है, करना मुश्किल. राहुल गांधी ने भी महाराष्ट्र के पिछले चुनावों में आयोग पर आक्षेप किया था, इसलिए कांग्रेस भी इस बार साफ-सुथरा परिणाम चाहती है.
और यहां एक मजेदार विडंबना है : जिन राज्यों में सत्ताधारी दल एसआईआर का विरोध करते हैं, वहां चुनाव आयोग इस पर जोर देता है; और जहां हर कोई इसकी मांग कर रहा है - जैसे महाराष्ट्र - वहां आयोग इंतजार करना पसंद करता है. भारतीय राजनीति में, किसी सूची को साफ करना भी आसान काम नहीं है.
सोनिया गांधी की नई सहयोगी
सोनिया गांधी की यात्राओं में एक नया ‘साथी’ शामिल हो गया है - और यह कोई अनुभवी वफादार नहीं, बल्कि बिहार से जोशीली सांसद और बेबाक नेता पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन हैं. जब से सोनिया गांधी उच्च सदन में आई हैं, रंजीत को संसद में उनके साथ आते-जाते देखा गया है, जिससे कांग्रेस पर्यवेक्षकों ने उन्हें कांग्रेस की मुखिया की नई परछाईं करार दिया है.
टेनिस की शौकीन और मुखर वक्ता रंजीत को राष्ट्रीय खेल प्रशासन विधेयक पर पार्टी की अगुवाई के लिए चुना गया था -एक ऐसा कदम जिसने कथित तौर पर पूर्व मंत्री अजय माकन को नाराज कर दिया था, जिन्होंने मूल संस्करण का मसौदा तैयार किया था, इससे पहले की उनकी अपनी सरकार ने इसे रद्द कर दिया.
लेकिन अंदरूनी सूत्रों को रंजीत की अचानक चुप्पी हैरान कर रही है. अपने तीखे हस्तक्षेपों के लिए जानी जाने वाली रंजीत विपक्ष के वोट चोरी अभियान और अन्य राजनीतिक विवादों से गायब रही हैं. इस बीच, उनके पति पप्पू यादव अब अवांछित व्यक्ति नहीं रहे और राहुल के साथ भी गर्मजोशी से बातचीत करते हैं. तो क्या रंजीत अपने सुर्खियां बटोरने वाले पति से संसदीय दूरी बनाए हुए हैं?
कोई कुछ नहीं कह रहा. लेकिन दिल्ली के गलियारों में, हर कोई कानाफूसी कर रहा है: सोनिया को एक नया साया मिल गया है - और वह भी किसी की उम्मीद से भी बेहतर. जब सोनिया गांधी पार्टी की वरिष्ठ नेता और अपनी पूर्व सहयोगी अंबिका सोनी के पति के अंतिम संस्कार में शामिल होने गईं तो उनके साथ रंजीत भी थीं.
और अंत में
भारत का लोकपाल इन दिनों गलत कारणों से सुर्खियों में है. भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल को 70-70 लाख रुपए की सात लग्जरी बीएमडब्ल्यू कारों की खरीद का टेंडर जारी करने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. लेकिन लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम पर गौर करने पर पता चलता है कि इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के समान वेतन, भत्ते और सेवा शर्तें दी गई हैं.
मुख्य न्यायाधीश को एक मर्सिडीज आवंटित की जाती है और अन्य न्यायाधीशों को वर्तमान में बीएमडब्ल्यू दी जाती हैं. लेकिन लोकपाल की छवि सबसे ऊपर है और यह पांच वर्षों में किसी भी उच्च और शक्तिशाली व्यक्ति को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी नहीं ठहरा पाया. यहां तक कि कई लोग कहते हैं कि यह अधिनियम कुछ ऐसा है कि लोकपाल एक दंतहीन बाघ बन गया है.