पीयूष पांडे का ब्लॉग: संविधान के मन की बात
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: January 25, 2020 01:11 PM2020-01-25T13:11:45+5:302020-01-25T13:11:45+5:30
संविधान ने तंज कसते हुए कहा-‘‘जिस तरह तुम्हारे जैसे 90 फीसदी लेखक-पत्नकार लिखते रहते हैं कि बांछें खिल गईं, लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि शरीर के किस अंग में बांछें खिलती हैं, वैसे ही मेरी शपथ लेकर अपनी राजनीति चमकाने वाले 90 फीसदी राजनेताओं को नहीं मालूम कि मुझमें लिखा क्या है.’’
बात पिछले साल के 26 जनवरी की है. मैं सुबह-सुबह अपनी निजी लाइब्रेरी में गया तो बहुत धीमी आवाज में सिसकने की आवाज सुनाई दी. सारी किताबें अलमारी से बाहर निकालीं तो अचानक संविधान बोल पड़ा- ‘‘तो याद आ ही गई मेरी?’’ मैं चौंका लेकिन नोटबंदी से लेकर एयर स्ट्राइक तक की खबरों के बाद चौंकना अब आदत में शुमार है. मैंने कहा- ‘‘किसी के रोने की आवाज सुनाई दी तो किताबों को उलट-पलट रहा था.’’
‘‘मैं ही रो रहा था.’’ संविधान ने कहा.
मैंने कहा- ‘‘आज आपका बर्थडे है. आज क्यों रोना.’’
संविधान के कहा- ‘‘अलग-अलग अलमारियों में पड़े बरसों बरस हो जाते हैं. लेकिन कोई सुध लेने नहीं आता. किसी लाइब्रेरी में, विधानसभा में, दफ्तर में, कॉलेज में कोई मुझे खोलकर नहीं पढ़ता कि मैं आखिर क्या कह रहा हूं. यदा-कदा बाहर के कमरे से टेलीविजन की आवाज कान में आती है तो लगता है कि जैसे हर कोई बस संविधान-संविधान की दुहाई दे रहा है.’’
मैंने पूछा-‘‘नेता भी नहीं पढ़ते?’’
संविधान ने तंज कसते हुए कहा-‘‘जिस तरह तुम्हारे जैसे 90 फीसदी लेखक-पत्नकार लिखते रहते हैं कि बांछें खिल गईं, लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि शरीर के किस अंग में बांछें खिलती हैं, वैसे ही मेरी शपथ लेकर अपनी राजनीति चमकाने वाले 90 फीसदी राजनेताओं को नहीं मालूम कि मुझमें लिखा क्या है.’’
संविधान की आवाज भारी हो गई. कहा- ‘‘सोच रहा हूं कि मुझे बनाते वक्त संविधान सभा में कितनी बहस हुई थी. सिर्फ इसलिए ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके अधिकार मिल सकें. लेकिन हुआ क्या?’’
पिछले साल की संविधान की ये बात मुझे आज याद आई, जब पड़ोसी शर्माजी यह कहते हुए नाराज हो रहे थे कि ‘यार साल की शुरुआत में ही छुट्टी की लिंचिंग हो गई. रिपब्लिक डे संडे को पड़ गया. जब ब्रिटेन की रानी साल में दो बार जन्मदिन मना सकती है, देश में अरसे तक 1 अप्रैल को पेश होने वाला बजट 1 फरवरी को पेश किया जा सकता है तो गणतंत्न दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वो को मनाने में भी थोड़ी लचीली नीति अपनाई जानी चाहिए.’
सच में, जब समाज और सियासत की रीढ़ ही लचीली हो गई तो नीति भी लचीली ही होनी चाहिए.