पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट की चेतावनी को गंभीरता से लेना होगा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 6, 2020 01:40 PM2020-08-06T13:40:50+5:302020-08-06T13:46:21+5:30
भारत की रिपोर्ट में भी आगाह किया गया है कि 2100 के अंत तक, भारत में गर्मियों (अप्रैल-जून) में चलने वाली लू या गर्म हवाएं 3 से 4 गुना अधिक हो सकती हैं. इनकी औसत अवधि भी दुगुनी होने का अनुमान है.
हाल ही में जारी भारत में जलवायु परिवर्तन आकलन में चेतावनी दी गई है कि देश का औसत तापमान वर्ष 2100 के अंत तक 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. तापमान में तेजी से वृद्धि के मायने हैं कि भारत के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्न, कृषि उत्पादन और मीठे पानी के संसाधनों पर संकट में इजाफा होगा, जिसका गहरा विपरीत प्रभाव जैव विविधता, भोजन, जल और ऊर्जा सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा.
रिपोर्ट में भारतीय शहरों में पर्यावरण के प्रति लापरवाही से बचने और देश के जंगलों और शहरी हरियाली की रक्षा करने की दिशा में सशक्त नीति और अनुसंधान की अनिवार्यता पर बल दिया गया है. यह एक बेहद खतरनाक संकेत है कि हमारे देश में सन 1901-2018 की अवधि में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण औसत तापमान पहले ही लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है और अनुमान है कि यदि हमने माकूल कदम नहीं उठाए तो 2100 के अंत तक यह वृद्धि लगभग 4.4 डिग्री सेल्सियस हो जाएगी.
भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्नालय द्वारा तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट के संकेत बेहद भयानक हैं. यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में कई ऐसे इलाके हैं जो कि पेड़-पौधे व प्राणयिों की जैव विविधता की स्थानीय प्रजाति ही नहीं बल्कि वैश्विक प्रजातियों के लिए भी संवेदनशील माने गए हैं. यदि जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होती है तो इन प्रजातियों पर अस्तित्व का खतरा हो सकता है.
औद्योगिक क्रांति के पहले वैश्विक औसत तापमान में लगभग एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है. 2015 के पेरिस समझौते में यह संकल्प किया गया कि औद्योगिक क्रांति के पहले के मानकों की तुलना में ग्लोबल वार्मिग को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाए और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जाए. लेकिन आज ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के जो हालात हैं उसके मुताबिक तो दुनिया के औसत तापमान में 3 से 5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी को नियंत्रित करना असंभव सा है.
भारत की रिपोर्ट में भी आगाह किया गया है कि 2100 के अंत तक, भारत में गर्मियों (अप्रैल-जून) में चलने वाली लू या गर्म हवाएं 3 से 4 गुना अधिक हो सकती हैं. इनकी औसत अवधि भी दुगुनी होने का अनुमान है. वैसे तो लू का असर सारे देश में ही बढ़ेगा लेकिन घनी आबादी वाले गंगा नदी बेसिन के इलाकों में इसकी मार ज्यादा तीखी होगी. रिपोर्ट के अनुसार, उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर के समुद्र की सतह का तापमान भी 1951-2015 के दौरान औसतन एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो कि इसी अवधि के वैश्विक औसत वार्मिग 0.7 डिग्री सेल्सियस से अधिक है.
तापमान में वृद्धि का असर भारत के मानसून पर भी कहर ढा रहा है. सनद रहे कि हमारी खेती और अर्थव्यवस्था का बड़ा दारोमदार अच्छे मानसून पर निर्भर करता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के ऊपर ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (जून से सितंबर) में 1951 से 2015 तक लगभग छह प्रतिशत की गिरावट आई है, जो गंगा के मैदानों और पश्चिमी घाटों पर चिंताजनक हालात तक घट रही है.
पृथ्वी विज्ञान मंत्नालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जलवायु परिवर्तन की निरंतर निगरानी, क्षेत्नीय इलाकों में हो रहे बदलावों का बारीकी से आकलन, जलवायु परिवर्तन के नुकसान, इससे बचने के उपायों को शैक्षिक सामग्री में शामिल करने, आम लोगों को इसके बारे में जागरूक करने के लिए अधिक निवेश करने की जरूरत है.
जैसे कि देश के समुद्री तटों पर जीपीएस के साथ ज्वार-भाटे का अवलोकन करना, स्थानीय स्तर पर समुद्र के जल स्तर में आ रहे बदलावों के आंकड़ों को एकत्न करना आदि. इससे समुद्र तट के संभावित बदलावों का अंदाजा लगाया जा सकता है और इससे तटीय शहरों में रह रही आबादी पर संभावित संकट से निबटने की तैयारी की जा सकती है. इसी प्रकार इस तरह के आंकड़ों का आकलन जिला और गांव-स्तर पर पानी के संचय, संभावित मानसून और गर्मी के अनुरूप फसल बोने, बीज के चयन आदि में भी मार्गदर्शक होगा.