पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: तालाब बचाने से ही बचेगी खेती
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 24, 2019 07:21 AM2019-04-24T07:21:45+5:302019-04-24T07:21:45+5:30
महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी भूूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजली, पंप, खाद, कीटनाशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है
भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम है. ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है. लेकिन दुखद पहलू यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है.
महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी भूूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजली, पंप, खाद, कीटनाशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है. एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. खेती-किसानी भारत की संस्कृति का हिस्सा है और इसे सहेजने के लिए जरूरी है कि अन्न उगाने की लागत कम हो और हर खेत को सिंचाई सुविधा मिले.
जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्चितता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसानों पर पड़ी है. भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं. उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग और कुप्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है. बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरे उनसे विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं.
फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत लंबी होती है. ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता. यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकारात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसानों को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है. तालाब को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही. यही नहीं, हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है.